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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

पहला अंक

पहला दृश्य

{प्रभात का समय, सूर्य की सुनहरी किरणें खेतों और वृक्षों पर पड़ रही है। वृक्ष पुंजों में पक्षियों का कलरव हो रहा है। बसंत ऋतु है। नयी-नयी कोपलें निकल रही है। खेतों में हरियाली छायी हुई है। कहीं-कहीं सरसों भी फूल रही है। शीत-बिन्दु पौधों पर चमक रहे हैं।}

हलधर– अब और कोई बाधा न पड़े तो अब की उपज अच्छी होगी। कैसी मोटी-मोटी बालें निकल रही हैं।

राजेश्वरी– यह तुम्हारी कठिन तपस्या का फल है।

हलधर– मेरी तपस्या कभी इतनी सफल न हुई थी। यह सब तुम्हारे पौरे की बरकत है।

राजेश्वरी– अबकी से तुम एक मजूर रख लेना। अकेले हैरान हो जाते हो।

हलधर– खेत ही नहीं है। मिलें तो अकेले इसके दुगुने जोत सकता हूं।

राजेश्वरी– मैं तो गाय जरूर लूंगी। गऊ के बिना सूना मालूम होता है।

हलधर– मैं पहले तुम्हारे लिए कंगन बनवा कर तब दूसरी बात करूंगा। महाजन से रुपये ले लूंगा। अनाज तौल दूंगा।

राजेश्वरी– कंगन की इतनी क्या जल्दी है कि महाजन से उधार लो। कुछ अभी पहले का भी तो देना है।

हलधर—जल्दी क्यों नहीं है। तुम्हारे मैके से बुलावा आयेगा ही। किसी नये गहने बिना जाओगी तो तुम्हारे गांव-घर के लोग मुझे हंसेगे कि नहीं?

राजेश्वरी– तो तुम बुलावा फेर देना। मैं करज लेकर कंगन न बनवाऊंगी। हां, गाय पालना जरूरी है। किसान के घर गोरस न हो तो किसान कैसा! तुम्हारे लिए दूध-रोटी कलेवा लाया करूंगी। बड़ी गाय लेना, चाहे दाम बेशी देना पड़ जाये।

हलधर-तुम्हें और हलकान न होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन आराम कर लो, फिर तो यह चक्की पीसनी ही है।

राजेश्वरी– खेलना-खाना भाग्य में लिखा होता हो तो सास-ससुर क्यों सिधार जाते? मैं अभागिन हूं। आते-ही-आते उन्हें चट कर गयी। नारायण दें तो उनकी बरसी धूम से करना।

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