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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग

प्रेमचन्द की सभी कहानियाँ इस संकलन के 46 भागों में सम्मिलित की गईं है। यह इस श्रंखला का सत्रहवाँ भाग है।

अनुक्रम

1. दारू-ए-तल्ख़ (कड़वी सचाई)
2. दिल की रानी
3. दीक्षा
4. दुनिया का सबसे बड़ा अनमोल रत्न
5. दुराशा
6. दुर्गा का मंदिर
7. दुर्गादास

1.दारू-ए-तल्ख़ (कड़वी सचाई)

यूनिवर्सिटी के इम्तिहान खत्म हो गए थे और क्वींस कालेज का बोर्डिंग हाउस बिलकुल सुनसान नज़र आता था। सिर्फ़ दो चिंतामग्न सूरतें एक कमरे में बैठी हुई दिखाई देती थीं। इनमें बहुत गाढ़ी दोस्ती थी। चार साल की निकटता ने दोस्ती की जड़ मजबूत कर दी थी। आज इम्तहान को खत्म हुए पूरा एक हफ्ता गुजर गया था, मगर जुदाई का खौफ इन्हें जुदा नहीं होने देता। कई बार इनका असबाब बाँधा गया, रेल का वक्त देखा गया, कई बार फाटक तक किराए की गाड़ी बुलाई गई, मगर चलने का वक्त आया तो दोनों दोस्त गले लिपट गए और रवानगी का इरादा बदल गया। रात को यह सलाह करके- सोये कि अब सुबह को जरूर चलेंगे। यह जुदाई की मुसीबत तो एक दिन झेलनी ही है। आखिर कब तक टालेंगे। मगर कल आते ही उनके दिलों की वही कैफ़ीयत हो जाती, जो मौत को बुलाने वाले लकड़हारे की होती थी। आखिर जब खुश-नसीब लक्ष्मीदत्त के पिता डाक्टर हरिदत्त ने झाड़कर लिखा- ''तुम्हारे इस विलंब में मुझे अंदेशा होता है कि तुम वहाँ अपने पैरों में कोई नई जंजीर ना डाल बैठो।'' तो गोविंदराम को अपना दिल छोटा करना पड़ता। गोविंदराम के घर से भी ऐसे ही मजमून का खत आया। बाप तो कब के सिधार चुके थे। बीवी ने लिखा- ''प्यारे, तुम क्यों नहीं आते? मुझे यह इत्मिनान दिलाओ कि मुझे सौतन का जलापा तो न सहना पड़ेगा?''

अव बनारस में रुकना गैरमुमकिन था। 30 अप्रैल को इम्तिहान खत्म हुआ था। 15 मई को उनकी रवानगी की सायत आई। दोनों के चेहरे दुःखी थे और गोविंद की आँखों में आँसू थे, मगर किनारा-ए-सागर की खुश्क बालू की तरह उन्हें सिर्फ़ झागे की देर थी, सतह के नीचे पानी छुपा हुआ था।

लक्ष्मीदत्त अपने घर पर पहुँचकर अपने पिता के साथ नैनीताल गया। डाक्टर हरिदत्त बहुत रसूखदार आदमी थे। बेटे को जंगलात के सींगा में एक अच्छी जगह दिला दी और आषाढ़ के महीने में जब कि आसमान बादलों से सियाह और जमीन पानी से लबरेज थी, उसे तराई में जाना पड़ा। आबादी से सैकड़ों मील दूर, जहाँ महीने में मुश्किल से चार मर्तबा ही डाक पहुँच सकती थी। तनख्वाह अच्छी और काफी अधिकार थे। कुछ दिनों तक तो वह बहुत घबराया और गोविंदराम की सोहबतों को याद करके वह कई बार रोया। न कोई सोसाइटी, न कोई दोस्त, तमाम दिन एक जंगली मुक़ाम में क़ैद रहना पड़ता, मगर अंत में तरक्की की उम्मीद और दुनिया की प्रेरणा, दोस्ती और मन को आकर्षित करने वाली भावनाएँ पर अधिकार आ गया। दोस्तों की यादें विस्मृत हो गईं। दिल में लज्जते-दर्द का ज़ौक बाक़ी न रहा और दुनियावी आम अखाज़ (दैनिक व्यय) की आखिरी क़िस्त वसूल कर ली।

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