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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

प्रसाद जी ने भारतेन्दु-युग, द्विवेदी-युग और छायावाद-युग इन तीनों युगों से मेल' खाने वाली रचनाएँ लिखी थीं। इस प्रकार प्रसाद जी की रचनाओं को काल-क्रम की दृष्टि से (१) पूर्वकाल, (२) मध्यकाल,  (३) अन्तिमकाल इन तीनों भागों में विभक्त कर सकते है।

'विशाख', 'राजश्री', 'अजातशत्रु', 'झरना', 'प्रतिध्वनि', 'छाया',  'प्रेम-पथिक', 'महाराणा का महत्व' और 'चित्राधार' उनकी पूर्वकाल' की रचनाएँ है। 'स्कन्दगुप्त', 'चन्द्रगुप्त', 'कामना', 'आकाश-दीप',  'कंकाल' 'एक घूंट' उनकी मध्य-कालीन रचनाएँ हैं। 'आँधी', 'तितली', 'ध्रुव-स्वामिनी', 'इन्द्रजाल', 'लहर', 'कामायनी', 'काव्य और कला' तथा अपूर्ण उपन्यास 'इरावती' अन्तिम काल की रचनाएँ हैं।

अब यहाँ सर्वप्रथम उनके सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'कामायनी' पर कुछ विचार प्रकट किये जाते हैं-

'कामायनी' की कथा- यह ब्राह्मण-ग्रन्थों के आधार पर सृष्टि के प्रथम ऐतिहासिक पुरुष मनु से आरम्भ होती है। खण्ड प्रलय के पश्चात् अकेले बच निकले मनु चिन्ताग्रस्त हैं। उन्हें अपने जीवन से भी घृणा-सी हो गई है। इतने में श्रद्धा नामा गन्धर्वराज-कन्या आ मिलती है। काम-गोत्रजा होने के कारण उसे 'कामायनी' भी कहा जाता है। वे दोनों क्रमश: प्रेम और परिचय के बढ़ने पर पति-पत्नी के रूप में रहने लगते हैं। किन्तु श्रद्धा के गर्भवती हो जाने पर मनु उसके प्रति कुछ उपेक्षा-सी प्रकट करते हैं। एक दिन शिकार से लौटने पर मनु को श्रद्धा ने स्वाभाविक रूप से ही कह दिया कि तुम दिन-भर न जाने कहाँ भटका करते हो, मैं अकेली सूनी कुटिया में उदास बैठी रहती हूँ; पर अब मैं अकेली न रहूँगी। यह सुनते ही मनु क्रोध-विह्वल हो ''अब तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं है। मेरे भाग्य में तो अकेले रहना लिखा है'' आदि कहते हुए श्रद्धा को अकेला छोड़कर चले जाते हैं। चलते-चलते मनु सारस्वत प्रदेश में पहुँचते है। सारस्वत-प्रदेश की रानी इड़ा उन्हें अपने राज्य के प्रबंधक के रूप में स्वीकार कर लेती है।

मनु वहीं रहने लगते हैं। कुछ समय के पश्चात् जब उन्होंने इड़ा पर भी अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न किया तो प्रजा में विद्रोह हो उठा। संघर्ष में मनु घायल होकर गिर पड़े। उधर श्रद्धा यह सब घटना स्वप्न में देखकर अपने द्वादशवर्षीय पुत्र को साथ ले उनकी रक्षा के लिए दौड़ पड़ी। घायल और मूर्च्छित मनु का उसने उपचार किया, किन्तु स्वस्थ और जाग्रत मनु लज्जा के कारण श्रद्धा को वहीं छोड़ भाग निकले। श्रद्धा अपने पुत्र 'मानव' को इड़ा को सौंप कर मनु को खोजने निकली और हिमालय में उनसे जा मिली।

श्रद्धा ने यहाँ मनु की सात्विक वृत्तियों को जागरित कर उन्हें शिवरूप का दर्शन कराया और बताया कि इच्छा, ज्ञान और क्रिया इन तीनों के समन्वय के बिना आत्मा का साक्षात्कार या मानव का कल्याण नहीं हो सकता। अब मनु और श्रद्धा एक पहुँचे हुए महापुरुष के रूप में सर्वत्र विख्यात हो गये हैं। उनके दर्शनार्थ पहुँचने वाले सैकड़ो यात्रियों में इड़ा और मानव भी उनके पास पहुँच जाते हैं। मनु उन्हें मानवता का दिव्य सन्देश देते है। यह मानवता का सन्देश ही कामायनी का मुख्य विषय है।

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