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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

अपने कविता-गुरु श्री द्विवेदी जी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करते हुए 'साकेत' के प्रारम्भ में कवि ने उनका कितनी श्रद्धा से स्मरण किया है। देखिए-

करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद।
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।।

हम देखते हैं कि गुप्त जी के हृदय में रामभक्ति, देशभक्ति तथा प्राचीनता के प्रति अनुरक्ति-इस प्रकार त्रिवेणी का संगम हो गया है। परम्परा की दृष्टि से आप श्रीसम्प्रदाय के अनुयायी ठहरते हैं, पर आप में साम्प्रदायिक संकीर्णता का लेश भी नहीं है। सर्व-धर्म-समन्वय-मूलक सारग्राहिणी उदारता की भावना आपमें स्वभाव-सिद्ध है। आपके इन्हीं महनीय गुणों से प्रभावित होकर हमारे गुणग्राही राष्ट्रपति माननीय श्री राजेन्द्रप्रसाद जी ने आपको भारतीय संसद के वरिष्ठ भवन (राज्य परिषद) का मनोनीत सदस्य निर्वाचित कर सर्वाधिक सम्मान प्रदान किया है। आपको राष्ट्रीय भावनाओं के प्रमुख प्रतिनिधि कवि के रूप में स्वीकार किया जा चुका है। आपकी रचनाएँ गुणोत्कर्ष और परिमाण दोनों दृष्टियों से हिन्दी-साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती हैं। राष्ट्र में विगत चालीस वर्षों से जो भावधारा प्रवाहित होती रही, उसे काव्य का रूप प्रदान कर आपने सदा के लिए अमर कर दिया है। इनका साहित्य इतना अधिक विशद और विशाल है कि कोई भी पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यद्यपि उन्होंने अधिकतर सभी की सभी रचनाएँ प्राचीन ऐतिहासिक गौरव-गाथाओं के आधार पर ही रची हैं फिर भी उनमें यथास्थान योग्य कवि ने मौलिक उद्धावनाओं का ऐसा सुन्दर पुट लगा दिया है कि वे आधुनिक युग के नवीनतम विचारक के लिए भी ग्राह्य एवं समादरणीय बन गई है। बात तो यह है कि यह युग मुख्य रूप से भारत के राष्ट्रीय जागरण का युग है। गुप्त जी ने अपनी इन कला-कृतियों के द्वारा राष्ट्रीयता के स्वर को घर-घर में गुँजा दिया। इसीलिए उन्हें 'राष्ट्रीय जागरण का वैतालिक' कहा गया है। गुप्त जी की समग्र रचनाओं को निम्न भागों में विभक्त कर सकते हें-

(१) राष्ट्रीय व जातीय विचारात्मक काव्य- भारत-भारती (१९१२) स्वदेश-संगीत (१९१५), वैतालिक (१९२९), किसान (१९१७), अजित (१९४३), राष्ट्रीय रचनाएँ हैं। हिन्दु (१९२७) और पत्रावली (१९२३) जातीय रचनाएँ हैं।

(२) भावात्मक गीतिकाव्य- झंकार ( १९२९), और मंगलघट (१९३४) इस श्रेणी की रचनाएँ हैं।

(३) ऐतिहासिक कथानक काव्य- रंग में भंग, विकटभट, गुरुकुल आदि इन कथात्मक रचनाओं को वैदिक काल' से लेकर आज तक के सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक युगों के आधार पर विभक्त किया जा सकता है।

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