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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

प्रेमचंद

जीवन-परिचय- हिन्दी के स्वनामधन्य अमर कथाकार, उपन्यास-सम्राट् श्री प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० में बनारस के पास लमही नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता मुन्शी अजायबलाल निम्न-मध्यवर्ग के कुलीन कायस्थ थे। वे डाकखाने में मुन्शी के पद पर कार्य किया करते थे। अपनी नई आशा में उन्होंने अपने पुत्र का नाम  'धनपतराय' और प्यार का नाम 'नवाबराय' रक्खा। सन् १८८३ में अजायबलाल की बदली बाँदा हो गई। इनके जन्म के समय से ही इनकी माता बीमार रहतीं और निर्धनता के कारण उचित चिकित्सा न हो सकने से वह पुत्र को सात वर्ष का छोड़कर स्वर्ग सिधार गईं। पाँच वर्ष की अवस्था सें ही प्रेमचन्द को अपने कुल-परम्परा के अनुसार उर्दू-फारसी पढ़ाना आरम्भ किया गया, पर वे मदरसे स्कूल की गणित-जैसे रूखे विषयों की पुस्तकों के स्थान पर उपन्यासों को बड़े चाव से पढ़ा करते थे। इस प्रकार मातृवियोग, विमाता की डाँट-फटकार और आर्थिक संकट से घिरे हुए बालक प्रेमचंद ने संसार में प्रवेश करते ही अनेक प्रकार के कटु अनुभव पा लिये थे। विमाता के दुर्व्यवहार के कारण बालक प्रेमचंद के कोमल हृदय पर बड़ी गहरी चोट लगती और उसे धीरे-धीरे घर में से गुड़ चुराकर खाने की लत पड़ गई। नौ वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते जब उनके पिता की बदली गोरखपुर हुई तो उन्होंने वहाँ एक तम्बाकू बेचने वाले के लड़के के सम्पर्क में आकर बीड़ी पीना सीख लिया। वह उसी के साथ रहते और रात-दिन उससे उपन्यास लेकर पढ़ते। 'तिलस्मे होशरुबा' आदि कई उपन्यास उन्होने नौ वर्ष की अवस्था में पढ़ डाले थे और तेरहवें वर्ष में पहुंचते-पहुंचते वे रतननाथ सरशार, शरर और रेनाल्ड के सभी उपन्यासों के कई पारायण कर चुके थे। बचपन में उपन्यास पढ़ने की इस लत ने ही उनमें उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति भी आगे चलकर जागरित कर दी और धीरे-धीरे वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास-लेखक के पद पर जा पहुंचे। किन्तु इस प्रवृत्ति के कारण वे स्कूल की पढ़ाई में ओर विशेष रूप से गणित में बहुत कमजोर रह गये।

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