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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


वक्तव्य स्नान करने के बाद बालों को सूखे अंगोछा से पोंछकर उनमें तेल लगाकर कंघी कर लें और स्वच्छ वस्त्रों को धारण करें। दिनचर्या के अनेक कृत्यों का उल्लेख इसमें नहीं हो पाया है, उन्हें आप चरक-सुश्रुत से संग्रह कर लें। अ.सं.अ. ३ में दिनचर्या से सम्बन्धित अन्य अनेक विषय दिये गये हैं, आप उन्हें भी देखें।

जीर्णे हितं मितं चाद्यान्न वेगानीरयेद्वलात्।
न वेगितोऽन्यकार्यः स्यान्नाजित्वा साध्यमामयम्।


भोजन आदि कर्तव्य स्नान कर लेने के बाद तथा पहले किये हुए भोजन के पच जाने के पश्चात् जो हितकर भोजन हो उसे मात्रा के अनुसार खाये; मूत्र, पुरीष के वेगों को बलपूर्वक न उभाड़ें। यदि मल-मूत्र का वेग मालूम पड़े तो उन्हें दबाकर अन्य कर्मों में न लग जाय। साथ ही यदि किसी प्रकार का साध्यरोग हो तो उसकी चिकित्सा किये बिना भी किसी दूसरे कार्य में नहीं लग जाना चाहिए।।१९।।

वक्तव्य—स्मृतियों में कथित दिनचर्या से आयुर्वेदीय दिनचर्या सर्वथा भिन्न है और होनी भी चाहिए, क्योंकि दोनों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न हैं। स्मृतिनिर्दिष्ट चर्या मनु. ४।९२-९३ में आप ही देखिए–कहाँ स्नान के बाद सन्ध्या और कहाँ सीधे भोजन, वह भी जब पहले का पच गया हो। हितं मितं—हितकारक वह भोजन है जिसमें धारण तथा पोषण करने की शक्ति हो। देखें—'डुधाञ् धारणपोषणयोः' धातु से क्त प्रत्यय जोड़कर बना हुआ शब्द–धा + क्त + हित। इसके बाद ऋतु, देश, काल का विचार करके जो सात्म्य हो, उसे हित कहते हैं। मितं—नपा-तुला, परिमित या थोड़ा। 'न वेगितोऽन्यकार्य: स्यात्'-इस विषय का विशेष व्याख्यान आप चरकसंहिता सू.अ. ७ में विस्तारपूर्वक देखें। अथवा अ.हृ.सू. अध्याय ४ का अवलोकन करें। 'नाजित्वा साध्यमामयम्'—यह वाग्भट का उपदेश विशेष करके आशुकारी रोगों के लिए है। अन्यथा प्रमेह तथा अर्श (बवासीर) आदि अनेक रोग ऐसे हैं, जिनमें रोगी चिकित्सा के साथ अन्य कार्यों को भी करता ही रहता है। यदि साध्य एवं आशुकारी रोगों की उपेक्षा कर रोगी अन्य कार्य करने लगता है, तो वह रोग असाध्य हो सकता है। भोजनविधि का वर्णन अ.सं.सू. ३।७६-८० तक को भी देख लें। यह भोजनविधि का आर्ष स्वरूप है।

सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं च न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत् ॥ २० ॥


सुख का साधन धर्म–सभी प्राणी चाहते हैं कि हमें सुख मिलें, अतएव उनकी प्रवृत्तियाँ (कार्य करने की लगन) सुख पाने के लिए होती है और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं होती। अतः सभी को धर्म-कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए।।२०।।

वक्तव्य-धर्म शब्द को लेकर धार्मिक नेताओं तथा राजनीतिक नेताओं ने बड़ा हंगामा चलाया है, अस्तु। वास्तव में प्राणिमात्र का यह धर्म है कि वह अपनी तथा अपने उपकारक पदार्थों की रक्षा करे।

इसमें किसी को किसी प्रकार का मतभेद नहीं है। इसी प्रकार की व्युत्पत्ति हमारे शास्त्रचिन्तकों ने धर्म शब्द की की है। देखें—'ध्रियते लोकः अनेन इति धर्मः' अथवा 'धरति लोकम् असौ इति धर्मः'। आज वास्तविक धर्म का आचरण न करने के कारण देश में जो दुरवस्था फैली है, इसको कोई नहीं देख रहा है। मनु आदि धर्माचार्यों ने धर्म का आचरण करने की सभी को आज्ञा दी है तथा सभी के अलग-अलग धर्मों का उपदेश दिया है। संक्षेप में इन स्थलों का अवलोकन करें। मनु. २।१२, २।११२. ४।२३८, २४१, २४२, ६।९२, ८।१५ तथा १७। उक्त उद्धरणों के अतिरिक्त महामानव मनु ने 'धर्म' शब्द की एक परिभाषा और भी दी है—'यस्तर्केणाऽनुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः'। (मनुः १२।१०६) अर्थात् जो तर्कबुद्धि से अनुसन्धान (विचार) करता है, वही धर्म को समझता है, यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह भी है—'अतर्क्यो वै धर्मः' अर्थात् धर्म के विषय में तर्क न करे। क्योंकि शास्त्र तीन प्रकार के होते हैं—१. प्रभुसम्मित, २. सुहृत्सम्मित तथा ३. कान्तासम्मित। ये वेद आदि धर्मशास्त्र ‘प्रभुसम्मित शास्त्र' के अन्तर्गत आते हैं, अतः ये अतर्क्य हैं; राजशासन के समान कठोर होते हैं।

सारांश- जो सत्कर्म अपनों तथा दूसरों को धारण करता है, उसका नाम 'धर्म' है। उसी को कोषकारों ने पुण्य, श्रेयस्, सुकृत तथा वृष पर्यायों से कहा है। शुभ कर्म को 'धर्म' और अशुभ कर्म को 'अधर्म' या पाप कहा है। ऐसे कर्म या कर्मों से स्वास्थ्य-लाभ होता है और मनःसन्तोष प्राप्त होता है। यही कारण है कि आयुर्वेद में विधि-निषेधक्रम से धर्म की शिक्षा दी जाती है। आयुर्वेद में कहा गया सम्पूर्ण सद्वृत्त धर्म का आकर है। इसी को सदाचार कहा गया है और सत् आचार को ही चरक ने 'आचाररसायन' कहा है। अन्य आयुर्वेदीय रसायन व्ययसाध्य हैं, किन्तु 'आचाररसायन' संयमसाध्य है।

भक्त्या कल्याणमित्राणि सेवेतेतरदूरगः।

मित्र-अमित्र सेवन-विचार—अच्छे मित्रों (शुभचिन्तक, अच्छी सलाह देने वालों) का श्रद्धा-भक्ति से सेवन करे। इनसे विपरीत चरित्र वालों से दूर रहे अर्थात् सावधान रहे, क्योंकि इनका सेवन करने से हानि हो सकती है।

हिंसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्यं पैशुन्यं परुषानृते॥२१॥
सम्भिन्नालापं व्यापादमभिध्यां दृग्विपर्ययम्।
पापं कर्मेति दशधा कायवाङ्मानसैस्त्यजेत्।। २२॥


पापकर्मों का त्याग-नीचे लिखे गये दस प्रकार के पापकर्मों का मन, वचन तथा कर्म से सदैव परित्याग करे- १. हिंसा (मार-पीट या किसी के मन को दुःखाना आदि), २. स्तेय (चोरी, लूट), ३. अन्यथाकाम (अनुचित ढंग से सुखभोग करना; जैसे—अगम्यागमन आदि)-इन शारीरिक दुष्कर्मों का शरीर से परित्याग करे। ४. पिशुनता (चुगुलखोरी), ५. परुषवाक्य (कठोर या अप्रियवचन), ६. अनृत (झूठी बात) तथा ७. सम्भिन्न आलाप (कभी कुछ और कभी कुछ कहना, जिसे दोगलापन कहते हैं)—वाणी सम्बन्धी इन पापकर्मों का वाणी द्वारा परित्याग करे अर्थात् ऐसी बातें न कहें। ८. व्यापादं (किसी को मार डालने या मरवा डालने की योजना), ९. अभिध्या (दूसरे की सम्पत्ति को हड़प जाने की इच्छा करना) तथा १०. दृग्विपर्यय (शास्त्र के निर्देशों के विपरीत सोचना, नास्तिकता, आप्त वाक्यों के विरुद्ध सोचना आदि)-इन मानसिक पापों का मन से परित्याग करे॥२१-२२।।

अवृत्तिव्याधिशोकार्ताननुवर्तेत शक्तितः।


अनुकूल व्यवहार-निर्देश—जिनकी कोई आजीविका नहीं है, जो रोग तथा शोक से पीड़ित हैं, उनके साथ अपनी शारीरिक तथा आर्थिक शक्ति के अनुरूप उचित व्यवहार करे अर्थात् आजीविकाहीनों को आर्थिक सहायता, रोगियों को चिकित्सा आदि की सहायता तथा शोकपीड़ितों को उचित आश्वासन देकर उनके अनुकूल व्यवहार करे।

आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकम् ॥२३॥

समदृष्टिता का निर्देश—सभी प्राणियों को अपने समान समझें, भले ही कीड़े-मकोड़े, चींटियाँ ही क्यों न हों अर्थात् किसी को क्षुद्र (छोटा या नीच) न समझें। उन्हें कष्ट न पहुँचायें, उन पर दया करें।। २३।।

अर्चयेद्देवगोविप्रवृद्धवैद्यनृपातिथीन्

सम्मान करने का निर्देश—देवता, गाय, ब्राह्मण, वृद्ध, वैद्य, नृप तथा अतिथि—इनकी पूजा करे अर्थात् इन्हें उचित सम्मान दें तथा इनका सत्कार करे।

वक्तव्य—यहाँ वृद्ध शब्द से माता-पिता तथा गुरुजनों का समावेश भी कर लेना चाहिए।

विमुखान्नार्थिनः कुर्यान्नावमन्येत नाक्षिपेत् ॥२४॥

याचकों की सम्मान-विधि–अर्थियों (याचकों) को अपनी शक्ति के अनुसार कुछ देना चाहिए। उन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिए, उनका अपमान न करे और न उन्हें झिड़कना ही चाहिए।।२४।।

उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेऽप्यरौ।

उपकार का निर्देश—सदा सबका उपकार करना चाहिए, भले ही अपकार करने के लिए तैयार शत्रु ही सामने क्यों न हो, उसके प्रति भी उपकार करना चाहिए।

वक्तव्य—सामान्य दृष्टिकोण है कि शत्रु के साथ अपकार ही करना चाहिए, किन्तु यहाँ तन्त्रकार का कथन उसके विपरीत है। उसका समर्थन इस प्रकार किया जा रहा है—जैसे वात आदि दोष रोगकारक होते हैं और जब वे सम अवस्था में होते हैं तो वे 'शरीरधारणात् धातवः' कहे जाते हैं, अतएव वे दोष भी हितकारक कहे जाते हैं।

सम्पद्विपत्स्वेकमना, हेतावीर्युत्फले न तु ॥२५॥

समभाव का निर्देश—सम्पत्ति (सुख) में तथा विपत्ति (दुःख) में समान भाव से रहे। किस कारण से सम्पत्ति मिली है और किस कारण से विपत्ति मिली है, इसका पता करे। जिस कारण से विपत्ति मिली है उस कारण से द्वेष करना चाहिए, न कि विपत्ति से द्वेष करे।।२५।।

वक्तव्य—यह सम्पत्ति एवं विपत्ति अपने-पराये सब पर आती है। दूसरे की सम्पत्ति को देखकर जलना नहीं चाहिए और दूसरे की विपत्ति को देखकर प्रसन्न नहीं होना चाहिए; अपितु यदि आप सम्पन्न होना चाहते हैं, तो उस कारण का पता लगाइए और वैसा प्रयत्न कीजिए, जिससे आप भी सम्पन्न हो सकें, जलते रहने से कोई लाभ नहीं होता।

काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम्।

मधुरभाषण-निर्देश-समय पर बोलें, हितकर बात कहें, थोड़ा (युक्तियुक्त) बोलें, ऐसी बात कहें जो अविसंवादि (जिसका कोई विरोध न करे अर्थात् सत्य) हो तथा पेशल (मीठा वचन) कहें।

पूर्वाभिभाषी, सुमुखः सुशीलः करुणामृदुः॥२६॥
नैकः सुखी, न सर्वत्र विश्रब्धो, न च शङ्कितः।


भाषण-विधि—पहले बोले (यह प्रतीक्षा न करे कि जब वह बोलेगा तब मैं बोलूंगा) अर्थात् मित्र के मिलते ही उसके बोलने से पहले मैं बोलूंगा, यह भाव मन में होना चाहिए और कुशल प्रश्न करने लगे। प्रसन्नचित्त, सभ्य व्यवहार करने वाला, दयालु, सरल स्वाभाव वाला, अकेला सुखी न रहे अर्थात् अपने बन्धु-बान्धव-इष्टमित्रों सहित सुखों का उपभोग करे। सबके साथ विश्वास न करे और सबके साथ अविश्वास भी न करे।। २६।।

न कञ्चिदात्मनः शत्रु नात्मानं कस्यचिद्रिपुम्।।२७॥
प्रकाशयेन्नापमानं न च निःस्नेहतां प्रभोः।


विचारों को गुप्त रखें—न अपने को किसी का शत्रु और न दूसरे को अपना शत्रु बतलाये। किसी ने अपना अपमान किया हो, उसका तथा अपने स्वामी, राजा आदि की अपने प्रति स्नेहहीनता का ही वर्णन किसी से न करे।॥२७॥

जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति ॥२८॥
तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः।


घरच्छन्दानुवर्तन-दूसरे के मन का अभिप्राय समझकर जो व्यक्ति जिस प्रकार सन्तुष्ट होता हो, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, उसे 'पराराधनपण्डित' कहते हैं।। २८।।

वक्तव्य-पञ्चतन्त्र में इसी आशय का एक पद्य इस प्रकार आया है—

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा। मूर्ख छन्दानुरोधेन यथार्थत्वेन पण्डितः।' (सूक्ति) अर्थात् लोभी को पैसा देकर, क्रोधी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को जैसा वह कहता है वैसा ही मानकर और यथार्थ बात को कहकर पण्डित को प्रसन्न करना चाहिए। यह लोकव्यवहार है।

न पीडयेदिन्द्रियाणि न चैतान्यति लालयेत्।।२९।।

इन्द्रिय-व्यवहारविधि—आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों को रूप, शब्द आदि अपने-अपने विषयों का उपभोग करने से न रोके, परन्तु उन-उन विषयों में उन्हें अत्यन्त लोलुप भी न होने दें।।२९।।

त्रिवर्गशून्यं नारम्भं भजेत्तं चाविरोधयन्।

त्रिवर्ग-विरोध का निषेध—ऐसा कोई कार्य न करे जिससे त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) की प्राप्ति न हो अथवा त्रिवर्ग का विरोध होता हो।

अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम्।।३०॥

सभी धर्मों का आचरण—सभी प्रकार के धर्मों में मध्यम मार्ग से चले, किसी धर्म का घोर समर्थक या घोर विरोधी न बने। यहाँ धर्म शब्द से आयुर्वेदोक्त सदाचार मार्ग में मध्यममार्ग पर चलें।। ३०।।

नीचरोमनखश्मश्रुर्निर्मला मिलायनः।
स्नानशीलः सुसुरभिः सुवेषोऽनुल्बणोज्ज्वलः।। ३१।।


शरीरशुद्धि के प्रकार-रोम (लोम), नख तथा श्मश्रु (दाढ़ी-मोछ) इन्हें अधिक न बढ़ायें, इन्हें काटते या कटवाते रहें। पैरों को स्वच्छ रखें, गुद आदि मलमार्गों को भी साफ रखना चाहिए। प्रतिदिन स्नान करें, सुगन्धित पदार्थों (इत्र आदि) का सेवन करें, सुन्दर वस्त्र धारण करें, उद्धत वेश न बनायें अर्थात् सभ्य पुरुषों के आचरणों का अनुकरण करें।। ३९।।

धारयेत्सततं रत्नसिद्धमन्त्रमहौषधीः।

रत्न आदि का धारण-रत्न, सिद्ध मन्त्र तथा औषधद्रव्यों को धारण करना चाहिए।

वक्तव्य-रत्न-हीरा, माणिक्य, पुखराज, नीलम आदि। सिद्धमन्त्र—बला, अतिबला, अपराजिता आदि। महौषधि—सहदेवी आदि। इनको वैद्य तथा दैवज्ञ आदि के निर्देशानुसार बाँह तथा गला आदि में धारण करना चाहिए।

सातपत्रपदत्राणो विचरेद्युगमात्रदृक् ॥३२॥

छाता आदि धारण—छाता लगाकर चलें, जूता पहन कर चलें तथा चार हाथ आगे तक के मार्ग को देखते हुए चलें।॥३२॥

निशिचात्ययिके कार्ये दण्डी मौली सहायवान्।

दण्ड आदि धारण-रात में यदि कोई आवश्यक कार्य आ जाय तो हाथ में लाठी लेकर चलें, सिर में पगड़ी बाँध लें या टोपी पहन लें और किसी को साथ में सहायता के लिए ले लें।

वक्तव्य—ऐसे उपदेश या तो शास्त्र देते हैं अथवा माता-पिता, शुभचिन्तक। पञ्चतन्त्र में भी एक ऐसी कथा आयी है; यथा—'अपि का पुरुषो मार्गे द्वितीयः क्षेमकारकः'। अर्थात् कैसा भी आदमी हो उसे साथ ले लेना चाहिए, वह कल्याण करता ही है।

चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छायाभस्मतुषाशुचीन् ॥३३॥
नाक्रामेच्छर्करालोष्टबलिस्नानभुवो न च


गमन-निर्देश—चैत्य (देवता का स्थान, बौद्ध या जैन मन्दिर, समाधि) पर न चढ़े, ध्वजा के डण्डा पर न चढ़े, निन्दित कर्म करने वाले पुरुष की छाया का स्पर्श भी न करे, भस्म (राख) तथा तुष (भूसी) के ढेर पर और अपवित्र स्थान पर न चढ़े और बालू एवं ढेलों के ढेर पर चढ़कर न चले।। ३३।।

नदी तरेन्न बाहुभ्यां, नाग्निस्कन्धमभिव्रजेत् ॥ ३४॥
सन्दिग्धनावं वृक्षं च नारोहेदुष्टयानवत्।


निषिद्ध कार्य—वेगवाली नदी या घहराती हुई नदी को बाँहों से तैरकर पार न करे। अग्निस्कन्ध (आग के ढेर अथवा ज्वालामुखी) के समीप न जाये। दूषित सवारी पर जैसे कोई नहीं चढ़ता उसी प्रकार सन्दिग्ध नौका (जिसके डूब जाने का भय हो) उसमें न चढ़े और जिस वृक्ष का टूट कर गिर जाने का सन्देह हो उस पर भी न चढ़े॥३४॥

नासंवृतमुखः कुर्यात्क्षुतिहास्यविजृम्भणम् ॥ ३५ ॥

छींक आदि करने की विधि—मुख को ढके बिना न छींके, न हँसे और न जुभाई ले (यह शिष्टाचार है) ॥३५॥

नासिकां न विकुष्णीयान्नाकस्माद्विलिखेगुवम्।
नाङ्गैश्चेष्टेत विगुणं, नासीतोत्कटकश्चिरम्॥


आंगिक चेष्टाओं का निषेध-अकारण नासिका के छिद्रों को अँगुली से न खोदे। अकारण भूमि को अँगुलियों से न खोदे (यह लक्षण विषदाता का कहा गया है)। टाँगों, बाँहों आदि से विकृत चेष्टाएँ न करें; जैसे—मुख बिचकाना, आँखें मटकाना आदि तथा उत्कट आसन से पाँवों के बल न बैठे। ३६ ॥

वक्तव्य-सुश्रुत ने भी इस प्रकार के भावों का निषेध किया है। देखें-सु.चि. २४।९५।

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