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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


भूमिदेहप्रभेदेन देशमाहुरिह द्विधा।

देशभेदों का वर्णन आयुर्वेदीय दृष्टिकोण के अनुसार देश दो प्रकार का होता है—

१. भूमिदेश और २. देहदेश। शरीर के विभिन्न अवयवों को यहाँ देहदेश कहा गया है। भूमिदेश का वर्णन आगे किया जा रहा है।

वक्तव्य—आयुर्वेदशास्त्र में प्रधान महत्त्व निदान एवं चिकित्सा का ही है। यहाँ ग्रन्थकार सूत्र रूप में विषयों का वर्णन कर आगे यथास्थान इन विषयों का विस्तृत विवेचन करेंगे। यह इनकी अपनी शैली है। देह शब्द देश के अर्थ में केवल आयुर्वेद में ही प्रयुक्त हुआ है। देहदेश का क्षेत्र है—सिर, हाथ, पैर आदि।

जाङ्गलं वातभूयिष्ठमनूपं तु कफोल्बणम्।। २३।।
साधारणं सममलं त्रिधा भूदेशमादिशेत्।


भूमिदेश का वर्णन-भूमिदेश तीन प्रकार का कहा गया है—१. जांगल देश; यहाँ हवा अधिक चलती है, २. आनूप देश; इस देश में कफदोष की प्रधानता रहती है और ३. साधारण देश; इस देश में वात आदि तीनों दोष समान अवस्था में रहते हैं।। २३।।

वक्तव्य—'भूमिदेहप्रभेदेन' से लेकर 'भूदेशमादिशेत्' तक की उक्त तीन पंक्तियाँ संग्रह तथा हृदय में समान हैं। इस प्रकार यहाँ संक्षेप में भूमिदेशों का वर्णन किया गया है। इनका विस्तृत वर्णन च.वि. ३।४७-४८, च.क. ११८ तथा सु.सू. के ३६वें भूमिप्रविभागीय अध्याय में देखें। इन देशों का परिचय औषधसंग्रह, रोगनिर्णय तथा साध्य-असाध्य का विचार करते समय अवश्य कर लेना चाहिए। उक्त तीन प्रकारों के देश-विवेचन से समस्त भूमण्डल का विचार किया जा सकता है।

शार्ङ्गधराचार्य ने तीन प्रकार के देशभेदों की चर्चा इस प्रकार की है—

बहूदकनगोऽनूपः कफमारुत-रोगवान्।
जाङ्गलोऽल्पाम्बुशाखी च पित्तासृङ्मारुतोत्तरः।।
संसृष्टलक्षणो यस्तु देश: साधारणो मतः'। (शा.सं.पू.खं. ६४)


१. जाङ्गल देश-रूखा-सूखा मरुस्थल; जैसे—भारत का बीकानेर तथा जैसलमेर क्षेत्र तथा बाहरी प्रदेश अरब, अफ्रीका आदि। प्रायः ये जल तथा वृक्षरहित देश हैं। यहाँ पित्तज, रक्तज एवं वातज रोग अधिक होते हैं।

२. आनूप देश–विपुल जल तथा पर्वतों से युक्त देश; जैसे—आसाम, ब्रह्मा तथा बंगाल की खाड़ी, नदी-नालों से व्याप्त भू-प्रदेश। यहाँ कफज तथा वातज रोग अधिक होते हैं।

३. साधारण देश—इसमें वात आदि सभी दोष सम रहते हैं, अतएव यहाँ अधिकांश रोग नहीं होते; फलतः यहाँ के निवासी अन्य देशवासियों की अपेक्षा स्वस्थ, सुन्दर, सुडौल शरीर वाले तथा नीरोग रहते हैं; जैसे-उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि के निवासी।

क्षणादिाध्यवस्था च कालो भेषजयोगकृत्।। २४ ॥

काल के भेद-आयुर्वेद में काल दो प्रकार का माना जाता है—१. क्षण अर्थात् प्रातःकाल तथा सायंकाल और २. रोग की अवस्था (आमावस्था एवं जीर्णावस्था)। इन दोनों कालों के अनुसार भेषजयोग (चिकित्सा का प्रयोग) किया जाता है।।२४।।

वक्तव्य-कोष-साहित्य में 'क्षण' शब्द दिन के विभाजन या प्रमाण में प्रयुक्त होता है। दूसरा यह ‘काल-विशेष' का भी सूचक है। क्षणादि यहाँ आदि शब्द से लव (३६ निमेष का समय), त्रुटि (दो क्षण या क्षण के चतुर्थांश के बराबर काल), मुहूर्त (१२ क्षण का या ४८ मिनट का समय), याम (पहर या तीन घण्टे का समय), अहोरात्र (२४ घण्टे का समय या १ दिन १ रात), पक्ष (१५ दिन), मास (३० दिन), ऋतु (२ मास का समय), अयन (६ मास का समय) तथा वर्ष से १२ मासों का ग्रहण कर लेना चाहिए। इस कालभेद का प्रयोग शास्त्र में इस प्रकार देखा जाता है। जैसे—प्रातःकाल वमनकारक औषधयोग को देना चाहिए, मध्याह्न में विरेचन कराना चाहिए, फिर कुछ समय रुक कर बस्ति का प्रयोग करना चाहिए आदि। इसके पहले जो देशभेद की व्याख्या की गयी थी, तदनुसार विचार कर अर्थात् यह किस देश का निवासी है, इसका आहार-विहार, रहन-सहन कैसा है, इसे क्या सात्म्य होगा, क्या असात्म्य होगा, यह सब विचार कर तब चिकित्सा करनी चाहिए। अतएव आगे औषध-प्रयोग की चर्चा प्रस्तावित है।

शोधनं शमनं चेति समासादौषधं द्विधा।

औषध के भेद—संक्षिप्त रूप से औषध (चिकित्सा) दो प्रकार की होती है-१.शोधन अर्थात् वमन-विरेचन आदि विधियों से दोषों को निकालना शोधन कहा जाता है और २. शमन अर्थात् उभड़े हुए वात आदि दोषों को शान्त करने का उपचार।

वक्तव्य—शोधन-चिकित्सा से बढ़े हुए दोषों को निकाल दिया जाता है एवं शमन-चिकित्सा द्वारा बढ़े हुए दोषों को शान्त कर दिया जाता है। आयुर्वेदोक्त समस्त औषधों का समावेश शोधन तथा शमन औषधों में हो जाता है। उक्त श्लोक में जो औषध' शब्द का प्रयोग हुआ है, यहाँ इसका अर्थ है—'चिकित्सा'। देखें—च.सू. १०।३; च.चि. ११३ तथा अ.हृ.सू. के द्विविधोपक्रमणीय नामक १४वें अध्याय को भी इस प्रसंग में देखें।

शरीरजानां दोषाणां क्रमेण परमौषधम् ॥२५॥
बस्तिर्विरेको वमनं तथा तैलं घृतं मधु।


शारीरिक दोषों की चिकित्सा-शरीरसम्बन्धी दोषों की उत्तम चिकित्सा क्रमश: इस प्रकार है—वातदोष की चिकित्सा बस्ति-प्रयोग, पित्तदोष की चिकित्सा विरेचन-प्रयोग तथा कफदोष की चिकित्सा वमन-प्रयोग है तथा वातदोष में तैल, पित्तदोष में घृत और कफदोष में मधु का प्रयोग उत्तम शमन-चिकित्सा है।।२५।।

वक्तव्य—उक्त श्लोक द्वारा शारीरिक दोषों की संक्षिप्त चिकित्सा कही गयी है। इनका विस्तृत विवरण अ.ह.सू. अध्याय १६ में स्नेहविधि, १८ में वमन एवं विरेचन विधि, १९ में बस्तिविधि को कहा गया है। अष्टांगहृदय का यह सूत्रस्थान है। आर्ष आयुर्वेदीय संहिता-ग्रन्थों का यह प्राचीन विषय-विभागक्रम रहा है। इसमें यथासम्भव आयुर्वेद सम्बन्धी अर्थों की सूचना होती है। इसमें आयुर्वेद के सूत्रों को मणियों की भाँति [था गया है और इन्हीं सूत्रों की अगले अध्यायों या स्थानों में विस्तृत व्याख्यान करने की इसमें प्रतिज्ञा की गयी है; अतः इसे 'सूत्रस्थान' कहा गया है। अतएव उक्त २५वाँ पद्य इसका एक उदाहरण मात्र है।

धीधैर्यात्मादिविज्ञानं मनोदोषौषधं परम्॥२६॥

मानसिक दोषों की चिकित्सा—मानसिक (रजस् तथा तमस्) दोषों की उत्तम चिकित्सा है—बुद्धि तथा धैर्य से व्यवहार करना और आत्मादि विज्ञान (कौन मेरा है, क्या मेरा बल है, यह कौन देश तथा कौन मेरे हितैषी या सहायक हैं) का विचार कर कार्य करना।। २६।।

वक्तव्य-नीति-उपदेष्टा आचार्य चाणक्य ने कुछ ऐसी ही स्थिति को ध्यान में रखकर यह पद्य कहा होगा—'

कः काल: कानि मित्राणि को देश: कौ व्ययागमौ।
कस्याऽहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः'। (चाणक्यनीति)।


वस्ति, विरेचन, वमन तथा तैल, घृत, मधु के प्रयोगों से क्रमशः वात, कफ दोषों का शमन हो जाता है और बुद्धि, धैर्य आदि से रजोगुण एवं तमोगुण जनित राग तथा क्रोध आदि की शान्ति हो जाती है।

भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्।
चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥ २७॥


चिकित्सा के चार पाद-चिकित्सा-कर्म के चार पाद (चरण या विभाग) माने जाते हैं। जैसे- १. भिषक् (वैद्य या चिकित्सक), २. द्रव्य (मैनफल आदि वमनकारक अर्थात् शोधन द्रव्य, गुरुच आदि शमन द्रव्य तथा बस्ति आदि शोधन उपकरण), ३. उपस्थाता (उप समीपे तिष्ठतीति)—परिचारक (जो रोगी के पास में रहकर उसकी देख-भाल करे; उसे उठाये, बैठाये, खिलाये, पिलाये तथा मल-मूत्र करने में सहायता करे) और ४. रोगी। इन चारों में प्रत्येक में चार-चार गुण होने चाहिए।।२७।।

दक्षस्तीर्थात्तशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक्।

वैद्य के चार लक्षण—१. दक्ष (चिकित्साकर्म में कुशल), २. तीर्थ (आचार्य) से शास्त्र (आयुर्वेदशास्त्र) के अर्थ को ग्रहण कर चुका हो। ३. दृष्टकर्मा (चिकित्सा की विधियों को जो अनेक बार देख चुका हो) और ४. जो शुचि (शरीर तथा आचरण से पवित्र) हो।

बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् ॥२८॥

औषध-द्रव्य के चार लक्षण-१. बहुकल्प (जो स्वरस, क्वाथ, फाण्ट, अवलेह, चूर्ण आदि अनेक रूपों में दिया जा सकता) हो, २. बहुगुण (जो औषध के सभी गुणों से सम्पन्न) हो, ३. सम्पन्न (अपने गुणों की सम्पत्ति से जो युक्त) हो और ४. योग्य (जो रोग-रोगी, देश, काल आदि के अनुकूल) हो।।२८।।

अनुरक्तः शुचिर्दक्षो बुद्धिमान् परिचारकः।

परिचारक (उपस्थाता) के चार लक्षण- १. अनुरक्त (रोगी से स्नेह रखने वाला), २. शुचि (खान-पान, औषधि खिलाने, रखने आदि में साफ-सफाई रखने वाला), ३. दक्ष (कुशल) तथा ४. बुद्धिमान् (समयोचित सूझ-बूझ वाला) होना चाहिए।

आढ्यो रोगी भिषग्वश्यो ज्ञापकः सत्त्ववानपि ॥२९॥

रोगी के चार लक्षण- १. आढ्य (धन-जन आदि से सम्पन्न), २. भिषग्वश्य (वैद्य की आज्ञानुसार औषध तथा पथ्य सेवन करने वाला), ३. ज्ञापक (अपने सुख-दुःख कहने में सक्षम) तथा ४. सत्त्ववान् (मानसिक शक्तिसम्पन्न अर्थात् चिकित्साकाल में होने वाले कष्टों से न घबड़ाने वाला) हो। २९।।

वक्तव्य-चरक-सूत्रस्थान अध्याय ९ का नाम 'खुड्डाकचतुष्पाद' है। इस सम्पूर्ण अध्याय में वैद्य, द्रव्य, परिचारक तथा रोगी इन्हीं चिकित्सा के चार पादों का वर्णन किया गया है, इसे देखें। इसके अगले दसवें अध्याय में मैत्रेय की शंकाओं का आत्रेय पुनर्वसु द्वारा जो समाधान दिया है, वह भी ध्यान देने योग्य है।

चिकित्सा के चार पादों में वैद्य सब में उत्तम (प्रधान) होता है, क्योंकि यदि वैद्य नहीं है तो अन्य तीन पाद गुणवान् होने पर भी अपना-अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाते। अतएव चिकित्सक को (च.सू. ९।१० में) विज्ञाता, शासिता, योक्ता तथा प्रधान कहा गया है। इन विशेषणों का तात्पर्य है—१. विज्ञाता अर्थात् औषधियों का जानकार, २. शासिता—परिचारक या परिचारकों से समयोचित कार्य कराने में सक्षम एवं कुशल और ३. योक्ता—रोगी को यह खाओ, यह पीओ आदि व्यवस्था देने में चतुर।

इस प्रकार औषध-द्रव्य आदि तीनों वैद्य के अधिकार में रहते हैं। इनमें विज्ञाता विशेष ज्ञानवान् होने के कारण वैद्य प्रधान एवं स्वतन्त्र होता है।

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