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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

भग्नावशेष

न मैं कवि था न लेखक, पर मुझे कविताओं से प्रेम अवश्य था। क्यों था, यह नहीं जानता, परन्तु प्रेम था, और खूब था, मैं प्रायः सभी कवियों की कविताओं को पढ़ा करता था, और जो मुझे अधिक रुचतीं, उनकी कटिंग भी अपने पास रख लेता था।

एक बार मैं ट्रेन से सफर कर रहा था। बीच में मुझे एक जगह गाड़ी बदलनी पड़ी। वह जंक्शन तो बड़ा था, परन्तु स्टेशन पर खाने-पीने की सामग्री ठीक न मिलती थी; इसलिए मुझे शहर जाना पड़ा। बाज़ार में पहुँचते ही मैंने देखा कि जगह-जगह पर बड़े-बड़े पोस्टर चिपके हुए थे जिनमें एक वृहत् कवि-सम्मेलन की सूचना थी, और ख़ास-ख़ास कवियों के नाम भी दिये हुए थे। मेरे लिए तो कवि-सम्मेलन का ही आकर्षण पर्याप्त था, कवियों की नामावलि को देखकर मेरी उत्कंठा और भी अधिक बढ़ गयी।

दूसरी ट्रेन से जाने का निश्चय कर, जब मैं सम्मेलन के स्थान पर पहुँचा तो उस समय कविता पाठ प्रारम्भ हो चुका था और उर्दू के एक शायर अपनी जोशीली कविता मजलिस के सामने पेश कर रहे थे। दाद भी इतने ज़ोरों से दी जा रही थी कि कविता का सुनना भी कठिन हो गया था। खैर, मैं भी एक तरफ चुपचाप बैठ गया, परन्तु चेष्टा करने पर भी आँखें स्थिर न रहती थीं; किसी की खोज में वे बार-बार विह्वल-सी हो उठती थीं। कई कवियों ने अपनी-अपनी सुन्दर रचनाएँ सुनायीं। सब के बाद एक श्रीमती जी भी धीरे-धीरे मंच की ओर अग्रसर होती दीख पड़ीं। उनकी चाल-ढाल तथा रूप-रेखा से ही असीम लज्जा एवं संकोच का यथेष्ट परिचय मिल रहा था। किसी प्रकार उन्होंने भी अपनी कविता शुरू की। अक्षर-अक्षर में इतनी वेदना भरी थी कि श्रोतागण मंत्र-मुग्ध से होकर उस कविता को सुन रहे थे। वाह-वाह और खूब-खूब की तो बात ही क्या, लोगों ने जैसे सांस लेना तक बंद कर दिया था। मेरा रोम-रोम उस कविता का स्वागत करने के लिए उत्सुक हो रहा था।

एक बार इस मूर्तिमती प्रतिभा का परिचय प्राप्त किये बिना उस नगर से चले जाना अब मेरे लिये असम्भव-सा हो गया। अतः इस निश्चय के अनुसार मैंने अपना जाना फिर कुछ समय के लिए टाल दिया।

उनका पता लगाकर, दूसरे ही दिन लगभग आठ बजे सवेरे मैं उनके निवास-स्थान पर जा पहुँचा और अपना ‘विजिटिंग कार्ड’ भिजवा दिया। कार्ड पाते ही एक अधेड़ सज्जन बाहर आये, और मैंने उनसे उत्सुकता से पूछा, ‘क्या श्रीमती...जी घर पर हैं?’

‘जी हाँ। आइए बैठिए।’

आदर प्रदर्शित करते हुए मैंने कहा—कल के सम्मेलन में उनकी कविता मुझे बहुत पसन्द आयी; क्या एक साहित्य-प्रेमी के नाते मैं उनसे मिल सकता हूँ?

एक कुर्सी पर बैठालते हुए वह बोले—वह मेरी लड़की है, मैं अभी बुलवाये देता हूँ।

उन्होंने तुरन्त नौकर से भीतर सूचना भेजी और उसके कुछ ही क्षण बाद वे बाहर आती हुई दीख पड़ीं।

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