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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

मोटर पर चम्पा बेहोश हो गयी थी। होश आने पर उसने अपने आप को एक बड़े भारी मकान में कैद पाया। मकान की सजावट देखकर किसी बहुत बड़े आदमी का घर मालूम होता था। कमरे में चारों तरफ चार बड़े-बड़े शीशे लगे थे। दरवाज़ों और खिड़कियों पर सुन्दर रेशमी परदे लटक रहे थे। दीवारों पर बहुत-सी अश्लील और साथ ही सुन्दर तसवीरें लगी हुई थीं। एक तरफ एक बढ़िया ड्रेसिंग टेबिल रखा था, जिस पर श्रृंगार का सब सामान सजाया हुआ था। बड़ी-बड़ी आलमारियों में कीमती रेशमी कपड़े चुन रखे थे।। ज़मीन पर दरी थी, दरी पर एक बहुत बढ़िया कालीन बिछा था। कालीन पर दो-तीन मसनद करीने से रखे थे। आस-पास चार-छै आराम कुर्सियाँ और कोट पड़े थे। चम्पा मसनद पर गिर पड़ी और खूब रोयी। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला और एक बुढ़िया खाने की सामग्री लिये हुए अन्दर आयी। भोजन रखते हुए बोली—यह खाना है खा लो; अब रो-पीटकर क्या करोगी? यह तो, यहाँ का, रोज ही का कारोबार है।

चम्पा ने भोजन को हाथ भी न लगाया। वह रोती ही रही और रोते-रोते कब उसे नींद आ गयी, वह नहीं जानती। सबेरे जब उसकी नींद खुली, दिन चढ़ आया था। वहाँ पर एक स्त्री पहिले से ही उसकी कंघी-चोटी करने के लिए उपस्थित थी। उसने चम्पा के सिर में कंघी करनी चाही। किन्तु एक झटके से चम्पा ने उसे दूर कर दिया। वह स्त्री बड़बड़ाती हुई चली गयी।

इस प्रकार भूखी-प्यासी चम्पा ने एक दिन और दो रातें बिता दीं। तीसरे दिन सबेरे उठकर चम्पा शून्य दृष्टि से खिड़की से बाहर सड़क की ओर देख रही थी। किसी के पैरों की आहट सुनकर ज्यों ही उसने पीछे मुड़कर देखा, वह सहसा चिल्ला उठी—दादा।

ठाकुर खेतसिंह के मुंह से निकल गया—बेटी।

उस दिन से उस गाँव की किसी स्त्री पर कोई कुदृष्टि न डाल सका।

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