परिवर्तन >> बिखरे मोती बिखरे मोतीसुभद्रा कुमारी चौहान
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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ
सुनते ही थानेदार साहब सर थामकर बैठ गये। गोपाल बहुत सीधा और स्नेही लड़का था। थानेदार का लड़का और गोपाल एक ही कक्षा में पढ़ते थे और दोनों में खूब दोस्ती थी। थानेदार और उनकी बीबी दोनों ही गोपाल को अपने लड़के की ही तरह प्यार करते थे। थानेदार को बड़ा अफसोस हुआ, बोले—आग लगे ऐसी नौकरी में। गिरानी का ज़माना है, वरना मैं तो इस्तीफ़ा देकर चल देता। पर करूँ क्या करूँ? घर में बीबी-बच्चे हैं, बूढ़ी माँ है—इनका निर्वाह कैसे हो नौकरी बुरी जरूर है पर पेट का सवाल इससे भी बुरा है। आज ६० रुपये माहवार मिलते हैं। नौकरी छोड़ने पर कोई बीस रुपट्टी को भी न पूछेगा—पापी पेट के लिए नौकरी तो करनी ही पड़ेगी। पर हाँ, इस हाय-हत्या से बचने का उपाय है। तीन महीने की मेरी छुट्टी बाकी है। तीन महीने बहुत होते हैं। तब तक यह तूफ़ान निकल ही जायगा।
यह सोचकर उन्होंने छुट्टी की दरख्वास्त दूसरे ही दिन दे दी।
उधर कोतवाल बख्तावरसिंह का बुरा हाल था। मारे रंज के उनका सिर दुखने लगा था। बख्तावर सिंह राजपूत थे। उन्होंने टॉड का राजस्थान पढ़ा था। राजपूतों की वीरता की फड़काने-वाली कहानियाँ उन्हें याद थीं। चित्तौड़ के जौहर, जयमल और फत्ता के आत्म-बलिदान और राणा प्रताप की बहादुरी के चित्र उनके दिमाग़ में रह-रह के चमक उठते थे। सोचते थे कि मैं समस्त राजपूत जाति की वीरता का वारिस हूँ। उनका सदियों का संचित गौरव मुझे प्राप्त है। मेरे पूर्वजों ने कभी निहत्थों पर शस्त्र नहीं चलाए, मैंने आज यह क्या कर डाला? ऐसे मारने से तो मर जाना अच्छा। पर पापी पेट जो न कराये सो थोड़ा।
इसी संकल्प-विकल्प में पड़ कर उन्होंने रात को भोजन भी नहीं किया। आखिर भोजन करते भी तो कैसे? उस घायल बच्चे का रक्त-रंजित कोमल शरीर, उसकी करुण चीत्कार और उसकी हृदय को हिला देने वाली निर्दोष, प्रश्नपूर्ण दृष्टि का चित्र उनकी आँखों के सामने रह-रहकर खिंच जाता था। उसकी याद उनके हृदय को टुकड़े-टुकड़े किये डालती थी। इस प्रकार दुखते हुए हृदय को दबाकर वे कब सो गये, कौन जाने?
सबेरे उठने पर उन्हें याद आयी कि कल ही जो उन्हें तनख़्वाह के तीन सौ रुपये मिले थे, उसे वे कोट की जेब में ही रखकर सो गये थे। कहीं किसी ने निकाल न लिए हों, इस ख़्याल से झटपट उन्होंने कोट की जेब में हाथ डाला और नोट निकाल कर गिनने लगे। एक-एक करके गिने, सौ-सौ के तीन नोट थे। उन पर सम्राट की तसवीर बनी थी और गवर्नमेण्ट की तरफ से किसी के हस्ताक्षर पर यह लिखा हुआ था कि माँगते ही एक सौ रुपये देने का वायदा करता हूँ रुक्का इन्दुल तबल प्रॉमिसरी नोट—‘माँगते ही एक सौ रुपये! इसी प्रकार एक, दो, तीन, एक ही महीने में तीन सौ! एक वर्ष में छत्तीस सौ, तीन हज़ार छै सौ...तीस वर्ष में एक लाख आठ हजार...हर साल तरक्की मिलेगी...फिर तीस साल के बाद पेन्सन और ऊपर से!! इसी उधेड़बुन में थे कि इतने ही में टेलीफ़ोन की घंटी बजी। वह चट से टेलीफोन के पास गये, बोले ‘हल्लो।’ उधर से आवाज आयी, ‘डी.एस.पी. और आप कौन हैं?’ उन्होंने कहा ‘शहर कोतवाल।’ शहर कोतवाल का अधिकारपूर्ण शब्द उनके कानों में गूँज गया। उधर से फिर आवाज आयी ‘अच्छा तो कोतवाल साहब! आज ११ बजे जेल के भीतर कल के गिरफ्तार-शुदा कैदियों का मुकदमा होगा। उसमें आप की गवाही होगी। आप ठीक ११ बजे जेल पर पहुँच जाइए।’ कोतवाल साहब ने कहा, ‘बहुत अच्छा।’
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