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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

पर फिर उनके हृदय ने काटा,‘न जाने कितने निरपराधियों के सिर फूटे-होंगे?’ दिमाग़ ने कहा, ‘फूटने दो। जब तक सरकार की नौकरी करते हो तब तक तुम्हें उसकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ेगा, और यदि आज्ञा का पालन नहीं कर सकते हो तो ईमानदारी इसी में है कि नौकरी छोड़ दो। माना कि आखिर ये लोग स्वराज्य के लिए ही झगड़ रहे हैं। उनका काम परमार्थ का है; सभी के भले के लिए है, पर किया क्या जाय? नौकरी छोड़ दी जाय तो इस पापी पेट के लिए भी तो कुछ चाहिए? हमारे मन में क्या देश-प्रेम नहीं है? पर खाली पेट देश-प्रेम नहीं हो सकता। आज नौकरी छोड़ दें, तो क्या स्वराज्य वाले मुझे ६०० रु. दे देंगे? हमारे पीछे भी तो गृहस्थी लगी है, बाल-बच्चों का पेट तो पालना ही होगा।’ इसी प्रकार सोचते हुए वे अपने बँगले पहुँचे।

घर पहुँचने पर मालूम हुआ कि पत्नी अस्पताल गयी है। लाठीकाण्ड में लड़के का सिर फट गया है। उनका कलेजा बड़े वेग से धड़क उठा। उनका एक ही लड़का था। तुरन्त ही मोटर बढ़ायी, अस्पताल जा पहुँचे। देखा कि उनकी स्त्री गोपू को गोद में लिए बैठी आँसू बहा रही है। गोपू के सिर में पट्टी बँधी है और आँखें बन्द हैं। उन्हें देखते ही पत्नी ने पीड़ा और तिरस्कार के स्वर में कहा—यह है तुम्हारे लाठी-चार्ज का नतीजा।

उनका गला रुँध गया और आँसू भी वेग से बह चले। राय साहब कुन्दनलाल के मुँह से एक शब्द भी न निकला। इतने ही में डाक्टर ने आकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा—कोई खतरे की बात नहीं है। घाव गहरा ज़रूर है। पर इससे भी गहरे-गहरे घाव भी अच्छे हो जाते हैं, आप चिन्ता न कीजिए।

राय साहब ने पत्नी से पूछा—आखिर, तुमने इसे वहाँ जाने ही क्यों दिया?

पत्नी ने कहा—तो मुझसे पूछ के ही तो वहाँ गया था न?

रात भर गोपू बेहोश रहा और दूसरे दिन भी बेहोशी दूर न हुई। दूसरे दिन ११ बजे दिन से जेल में मुकदमा होने वाला था। परन्तु न्यायाधीश ठीक समय पर न पहुँच सके। आज सज़ा सुनानी थी। मामला था, एक तेरह साल की बालिका को बेचने के लिए भगा ले जाने का। जुर्म साबित हो चुका था। न्यायाधीश के द्वारा उसे छः महीने की सख्त कैद सजा दी गयी थी।

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