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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


एक दिन उसके पास एक विदेशी आदमी आया। वह मैले–कुचैले फटे-पुराने खाकी कपड़े पहने हुए था। मुख पर झुर्रियाँ पड़ी थीं, आँखों में एक तीखा दर्द था। उसने ज्ञान से कहा–आप मुझे कुछ काम दें, ताकि मैं अपनी रोजी कमा सकूँ। मैं विदेशी हूँ। आपके देश में भूखा मर रहा हूँ। कोई भी काम मुझे दे, मैं करूँगा। आप परीक्षा लें। मेरे पास रोटी का टुकड़ा भी नहीं है।

ज्ञान ने खिन्न होकर कहा–मेरी दशा तुमसे कुछ अच्छी नहीं है, मैं भी भूखा हूँ।

वह विदेशी एकाएक पिघल–सा गया। बोला–अच्छा मैं आपके दुःख से बहुत दुखी हूँ। मुझे अपना भाई समझें। यदि आपस में सहानुभूति हो, तो भूखे मरना मामूली बात है। परमात्मा आपकी रक्षा करे। मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ?

ज्ञान ने देखा कि देशी-विदेशी का प्रश्न तब उठता है, जब पेट भरा हो। सबसे पहला शत्रु तो यह भूख ही है, पहले भूख को जीतना होगा, तभी आगे कुछ सोचा जा सकेगा ...

और उसने ‘भूख से लड़ाकों, का एक दल बनाना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अमीरों से धन छीनकर सब में समान रूप से वितरण करना, भूखों को रोटी देना इत्यादि, लेकिन जब धनिकों को इस बात का पता चला तब उन्होंने एक दिन चुपचाप अपने घरों द्वारा उसे पकड़वा मँगाया और एक पहाड़ी किले में कैद कर दिया। वहाँ एकान्त में वे उसे सताने के लिए नित्य एक मुट्ठी चबैना और एक लोटा पानी दे देते, बस।

धीरे-धीरे ज्ञान का हृदय ग्लानि से भरने लगा। जीवन उसे बोझ-सा जान पड़ने लगा। निरन्तर यह भाव उसके भीतर जगा करता कि मैं, ज्ञान परमात्मा का प्रतिनिधि इतना विवश हूँ कि पेट भर रोटी का प्रबन्ध मेरे लिए असम्भव है। यदि ऐसा है, तो कितना व्यर्थ है यह जीवन, कितना छूँछा, कितना बेमानी!

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