लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

264 पाठक हैं

गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है

मधुआ

श्री जयशंकर प्रसाद

(स्वर्गीय श्री जयशंकर ‘प्रसाद’ का जन्म सुँधनी साहू नामक एक प्रतिष्ठित तथा धनी वैश्य परिवार में १८८९ ई. में हुआ था। प्रसादजी ने अँग्रेजी की ८वें दर्जे तक की शिक्षा घर पर पाई। १० वर्ष की आयु में ही वे लिखने लगे थे। प्रथम उनकी एक कविता १९०६ ई. में ‘भारतेन्दु’ में प्रकाशित हुई थी।
प्रसाद जी ने नवीन युग का द्वार हिन्दी में खोला था। वे कविता की नवीन धारा के प्रवर्तक और उसके सर्वमान्य श्रेष्ठ कवि थे। हिन्दी के नाटक-साहित्य में उनकी देन सबसे अधिक है और वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार के रूप में भी विख्यात हैं।
कथा साहित्य भी उनसे कीर्तिवान बना है १९११ से जब हिन्दी के अपने मौलिक कहानी लेखक नहीं थे, तब से उनके भण्डार को उन्होंने भरा है। साहित्य के इन विविध अंगों की पूर्ति के साथ-साथ उन्होंने साहित्य तथा खोज सम्बन्घी निबन्ध भी लिखे हैं, जिनका स्थान साहित्य में बहुत ऊँचा है।)

‘आज सात दिन हो गये, पीने को कौन कहे, छुआ तक नहीं। आज सातवाँ दिन है सरकार!’

‘तुम झूठे हो। अभी तक तुम्हारे कपड़े से महँक आ रही है।’

‘वह...वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर...कई दिन हुए–अँधेरे में बोतल उड़ेलने लगा। कपड़े पर गिर जाने से नशा भी न आया। और आपको कहने को क्या…कहूँ...सच मानिए, सात दिन–ठीक सात दिन से एक बूँद भी नहीं।’

ठाकुर सरदार सिंह हँसने लगे। लखनऊ में लड़का पढ़ता था। ठाकुर साहब भी कभी-कभी वहीं आ जाते। उनको कहानी सुनने का चसका था। खोजने पर यही शराबी मिला। वह रात को, दोपहर में, कभी-कभी सबेरे भी आ जाता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book