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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


बात साधारण थी; परन्तु हृदयों में गांठ बँध गई। पालू को उसकी स्त्री ने भी समझाया, माँ ने भी; पर उसने किसी की बात पर कान न दिया, और बे-परवाई से सबको टाल दिया। दिन को प्रेम के दौरे चलते, रात को स्वर्ग वायु के झकोरे आते। पालू की स्त्री की गोद में दो वर्ष का बालक खेलता था, जिस पर माता-पिता दोनों न्योछावर थे। एकाएक उजाले में अन्धकार ने सिर निकाला। गाँव में विशूचिका का रोग फूट पड़ा, जिसका पहला शिकार पालू की स्त्री हुई।

पालू विलक्षण प्रकृति का मनुष्य था। धीरता और नम्रता उसके स्वभाव में सर्वथा प्रतिकूल थी। बाल्यवस्था में वह बे-परवा था। बे-परवाई चरम-सीमा पर पहुँच चुकी थी। आठ-आठ दिन घर से बाहर रहना उसके लिए साधारण बात थी। फिर विवाह हुआ, प्रेम ने हृदय के साथ पाँवों को भी जकड़ लिया। यह वह समय था, जब उसके नेत्र एकाएक बाह्य संसार की ओर से बन्द हो गये और वह इस प्रकार प्रेम-पाश में फँस गया; जैसे –शहद में मक्खी। मित्र-मण्डली नोक-झोंक करती थी, भाई-बन्धु आँखों में मुस्कराते थे; मगर उसके नेत्र और कान–दोनों बन्द थे। परन्तु जब स्त्री भी मर गई, तो पालू की प्रकृति चंचल हो उठी। इस चंचलता को न खेल-तमाशे रोक सके, न मनोरंजक किस्से-कहानियाँ। यह दोनों रास्ते उससे पददलित किये जा चुके थे। प्रायः ऐसा देखा गया है कि पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा अनपढ़ और मूर्ख लोग अपनी टेक का ज्यादा ख्याल रखते हैं और इसके लिए तन-मन-धन तक न्योछावर कर देते हैं। पालू में यह गुण कूट-कूट कर भरा हुआ था। माता-पिता ने दुबारा विवाह करने को ठानी; परन्तु पालू ने स्वीकार न किया और उनके बहुत कहने सुनने पर कहा कि जिस बन्धन से एक बार छूट चुका हूँ, उसमें दुबारा न फसूँगा। गृहस्थ का सुख-भोग मेरे प्रारब्ध में न था, यदि होता, तो मेरी स्त्री क्यों मरती। अब तो इसी प्रकार जीवन बिता दूँगा; परन्तु यह अवस्था भी अधिक समय तक न रह सकी। तीन मास के अन्दर-अन्दर उसके माता-पिता–दोनों चल बसे। पालू के हृदय पर दूसरी चोट लगी। क्रिया-कर्म से निवृत्त हुआ, तो रोता हुआ, बड़ी भावज के पाँवों पर गिर पड़ा और बोला–अब तो तुम्हीं बचा सकती हो; अन्यथा मेरे मरने में कोई कसर नहीं।

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