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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


सतीश सेण्ट्रल हिन्दू-कालेज में पढ़ता है। इस वर्ष वह एम.ए. की अंतिम परीक्षा देगा। सतीश बड़ा धार्मिक है। वैसे तो हर लड़के को, जो हिन्दू-कालेज के बोर्डिंग हाउस में रहता है, स्नान-ध्यान और धार्मिक कृत्य सम्पादन करने पड़ते हैं, किन्तु सतीश ने अपनी बाल्यावस्था के कुल वर्ष अपने मामा डाक्टर राजा बाबू के पास काटे हैं। इसलिए नित्य प्रात:काल उठना, सन्ध्योपासना करना और परोपकार के लिए दत्तचित्त रहना उसका स्वभाव-सा हो गया है। सतीश छ: वर्ष से कालेज में पढ़ रहा है और हर वर्ष परीक्षा में बड़ी नामवरी के साथ पास हो रहा है। सतीश अपने देवी गुणों के लिए सब लड़कों में प्रसिद्ध है। हर एक लड़का, किसी-न-किसी रूप में उसकी कृपा का पात्र बना है। अनेक कमजोर (शरीर में नहीं, पढ़ाई में) लड़कों ने उससे पढ़ा है; अनेक-गरीब विद्यार्थियों की उसने आर्थिक सहायता की है। किसी लड़के के रोग-ग्रस्त होने पर सहोदरवत् उसने उसकी शुश्रूषा भी की है। इसलिए, कालेज का हर लड़का उसको बड़ी पूज्य-दृष्टि से देखता है। सतीश के पास वाले कमरे में रामसुन्दर नामक एक लड़का रहता है। वह दो वर्ष से इस कालेज में पढ़ता है। पर, है सतीश का सहाध्यायी ही। यह लड़का घर का मालदार होते हुए भी विद्या का बड़ा प्रेमी है। इसके पिता का हाल में स्वर्गवास हो गया है और वह बहुत ही बड़ी सम्पत्ति का मालिक हुआ है। पर, फिर भी, इसने पढ़ना नहीं छोड़ा। सतीश के साथ इसकी बड़ी घनिष्ठता है। सतीश और रामसुन्दर की प्रकृति अनेक अंशों में एक-सी है। इसलिए इन दोनों में मित्रता है। सतीश और रामसुन्दर छुट्टी के समय प्राय: एक ही साथ रहते हैं।

सतीश और रामसुन्दर एक नाव पर बैठे हुए हैं। नाव पुण्यतोया भागीरथी में धीरे-धीरे बह रही है। ग्रीष्म-ऋतु की सन्ध्या है। बड़ा लुभावना दृश्य है। तारों का बिम्ब गंगाजल में पड़कर अजीब बहार दिखा रहा है। सच तो यह है कि इस ‘शाम’ के सामने ‘शामे लखनऊ’ कुछ भी चीज नहीं। नाव वाला मीठे स्वर में कोई गीत गा रहा है। उसकी आवाज गंगा के तट के अट्टालिका-सम ऊँचे स्थानों से टकराकर मानो कई गुना होकर वापिस आ रही है। ये दोनों मित्र आपस में घुल-घुलकर बातें कर रहे हैं। अन्त में सतीश ने कहा– ‘मित्र, तुम्हारा हृदय बहुत विशाल है, इस बात को मैं स्वीकार करता हूँ। जहाँ तक मेरी शक्ति है, मैं तुमको इस पुण्यकार्य में सहायता दूँगा। तीन मास बाद कालेज बन्द होगा। उस समय तीन मास से अधिका का समय मिलेगा। उसमें मैं तुम्हारे साथ रहूँगा; जहाँ तुम चलोगे मैं चलूँगा। जहाँ तक वश चलेगा, मैं तुम्हारे मनोरथ के साफल्य के लिए प्रयत्न करूँगा। इस समय काम को ईश्वर के ऊपर छोड़ो। परीक्षा के दिन बहुत कम रह गये हैं। इसलिए सब ओर से मन हटाकर इसी ओर लगाना चाहिए। परीक्षा में निवृत्त होकर अपनी सब शक्तियाँ उधर लगावेंगे। मैं तुम्हारा साथ दूँगा।’

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