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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


ईश्व री ने जवाब दिया–हाँ, साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यों कहिए कि आप ही की बदौलत मैं इलाहाबाद में पड़ा हुआ हूँ, नहीं कब का लखनऊ चला आया होता। अब की मैं इन्हें़ घसीट लाया। इनके घर से कई तार आ चुके थे, मगर मैंने इनकारी-जवाब दिलवा दिए। आखिरी तार तो अर्जेंट था, जिसकी फीस चार आने प्रति शब्द  है, पर यहां से उनका भी जवाब इनकारी ही गया।

दोनों सज्ज नों ने मेरी ओर चकित नेत्रों से देखा। आतंकित हो जाने की चेष्टाज करते जान पड़े।

रियासत अली ने अर्द्ध शंका के स्व।र में कहा–लेकिन आप बड़े सादे लिबास में रहते हैं।

ईश्वसरी ने शंका निवारण की–महात्माक गांधी के भक्त  हैं साहब। खद्दर के सिवा कुछ पहनते ही नहीं, पुराने सारे कपड़े जला डाले! यों कहो कि राजा हैं। ढाई लाख सालाना की रियासत है, पर आपकी सूरत देखो तो मालूम होता है, अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं।

रामहरख बोले–अमीरों का ऐसा स्वनभाव बहुत कम देखने में आता है। कोई भाँप ही नहीं सकता।

रियासत अली ने समर्थन किया–आपने महाराजा चाँगली को देखा होता तो दाँतों तले उंगली दबाते। एक गाढ़े की मिर्जई और चमरौंधे जूते पहने बाजारों में घूमा करते थे। सुनते हैं, एक बार बेगार में पकड़े गए थे और उन्हीं  ने दस लाख से कॉलेज खोल दिया।

मैं मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्या  बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्ता मुझे हास्याजस्पलद न जान पड़ा। उसके प्रत्ये क वाक्यझ के साथ मानों मैं उस कल्पित वैभव के समीपतर आता जाता था।

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