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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


आप मेरे परम हितैषी हैं। जो ऐसा न होता, तो यह लिफाफा आप न पढ़ते। अब तक यह कब का अग्निदेव के सुपुर्द हो चुका होता। आप मेरी कन्या के संरक्षक हैं। इसका कारण मैं आपसे नीचे लिखा वृत्तान्त कहती हूँ। सुनिये–

‘मेरे पिता दो भाई थे। पति की मृत्यु के बाद मेरे जेठ ने मुझसे अच्छा व्यवहार न किया। उन्होंने एक दिन क्रोध वश मुझे मकान से निकल जाने तक की आज्ञा दे दी। मेरे पति ने मरते समय बिना विचार किये ही, अपने भाई की आज्ञा का पालन करने का आदेश मुझे दिया था; इसलिए स्वर्गगत पतिदेव की आज्ञा का स्मरण करके मुझे अपने जेठ की अत्यन्त अनुचित और अकारण दी हुई आज्ञा को शिरोधार्य करना पड़ा। मैं अपनी एक मात्र कन्या को लेकर घर से निकल चली। ओफ़ कैसी भीषण रात्रि थी! उस समय के दु:ख का हाल किसी भले और सम्मान्य घर की स्त्री के मन से ही पूछना चाहिए। मेरे शरीर पर कुछ आभूषण थे।

उन्हीं के सहारे मैं कई सौ मील की यात्रा करके यहाँ आई और एक साधारण-सा मकान लेकर रहने लगी। मैंने जीवन-भर प्रतिष्ठा के साथ अपना और अपनी प्यारी बेटी का पेट पाला। मैंने ‘आन को रक्खा जान गँवाकर’ बस मेरा यही रहस्य है। अब यदि आप मेरा परिचय प्राप्त करना चाहें, तो दूसरे लिफाफे को खोलिए। उसमें आपको मेरे जेठ का लिखा हुआ एक रजिस्टर्ड इकरारनामा मिलेगा। उसमंक उन्होंने मेरे पति की सम्पत्ति को मेरी सम्पत्ति से अलग, अर्थात् विभक्त बताया है। उसमें मेरे पतिदेव का पूरा पता भी प्रसंगवश आ गया है। उसको आप साधारण काग़ज न समझिये। उसके द्वारा मेरी एकमात्र कन्या सरला- ईश्वर उसे सानन्द रक्खे- एक दिन लाख रुपये से अधिक मूल्यवाली सम्पत्ति की अधिकारिणी बन सकती है, पर मैं नहीं चाहती कि उसका प्रयोग किया जाय। मुझे पूर्ण आशा है कि मेरी सरला अपने गुणों के कारण ही बहुत बड़ी सम्पत्ति की अधिकारिणी होगी।

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