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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


खैर, पाँच बजे खेल शुरु हुआ। दोनों तरफ़ के खिलाड़ी बहुत तेज थे जिन्होंने हाकी खेलने के सिवा जिन्दगी में और कोई काम ही नहीं किया। खेल बड़े जोश और सरगर्मी से होने लगा। कई हज़ार तमाशाई जमा थे। उनकी तालियाँ और बढ़ावे खिलाड़ियों पर मारू बाजे का काम कर रहे थे और गेंद किसी अभागे की किस्मत की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता थी। दयाशंकर के हाथों की तेज़ी और सफाई, उनकी पकड़ और बेऐब निशानेबाजी पर लोग हैरान थे, यहाँ तक कि जब वक़्त ख़त्म होने में सिर्फ़ एक मिनट बाकी रह गया था और दोनों तरफ़ के लोग हिम्मतें हार चुके थे तो दयाशंकर ने गेंद लिया और बिजली की तरह विरोधी पक्ष के गोल पर पहुँच गये। एक पटाखे की आवाज़ हुई, चारों तरफ़ से गोल का नारा बुलन्द हुआ! इलाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशंकर के सिर था—जिसका नतीजा यह हुआ कि बेचारे दयाशंकर को उस वक़्त भी रुकना पड़ा और सिर्फ़ इतना ही नहीं, सतारा अमेचर क्लब की तरफ़ से इस जीत की बधाई में एक नाटक खेलने का कोई प्रस्ताव हुआ जिससे बुध के रोज भी रवाना होने की कोई उम्मीद बाक़ी न रही। दयाशंकर ने दिल में बहुत पेचोताब खाया मगर ज़बान से क्या कहते! बीवी का गुलाम कहलाने का डर ज़बान बन्द किये हुए था। हालाँकि उनका दिल कह रहा था कि अब की देवी रूठेंगी तो सिर्फ़ खुशामदों से न मानेंगी।

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