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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


गिरिजा ने पति की तरफ़ देखा, चेहरे पर हलकी-सी मुस्कराहट थी, वह यह कर रही थी कि यह आख़िरी बात तुम्हें ज़्यादा सम्हलकर कहनी चाहिए थी। गिरिजा और औरतों की तरह यह भूल जाती थी कि मर्दों की आत्मा को भी कष्ट हो सकता है। उसके ख़याल में कष्ट का मतलब शारीरिक कष्ट था। उसने दयाशंकर के साथ और चाहे जो रियायत की हो, खिलाने-पिलाने में उसने कभी भी रियायत नहीं की और जब तक खाने की दैनिक मात्रा उनके पेट में पहुँचती जाय उसे उनकी तरफ़ से कोई ज़्यादा अन्देशा नहीं होता था। हज़म करना दयाशंकर का काम था। सच पूछिये तो गिरिजा ही की सख्तियों ने उन्हें हाकी का शौक दिलाया वर्ना अपने और सैकड़ों भाइयों की तरह उन्हें दफ्तर से आकर हुक्के और शतरंज से ज़्यादा मनोरंजन होता था। गिरिजा ने यह धमकी सुनी तो त्योरियां चढ़ाकर बोली—अच्छी बात है, न बनेगा। दयाशंकर दिल में कुछ झेंप-से गये। उन्हें इस बेरहम जवाब की उम्मीद न थी। अपने कमरे में जाकर अख़बार पढ़ने लगे। इधर गिरिजा हमेशा की तरह खाना पकाने में लग गई। दयाशंकर का दिल इतना टूट गया था कि उन्हें ख़याल भी न था कि गिरिजा खाना पका रही होगी। इसलिए जब नौ बजे के करीब उसने आकर कहा कि चलो खाना खा लो तो वह ताज्जुब से चौंक पड़े मगर यह यकीन आ गया कि मैंने बाजी मार ली। जी हरा हुआ, फिर भी ऊपर से रुखाई से कहा—मैंने तो तुमसे कह दिया था कि आज कुछ न खाऊँगा।

गिरिजा—चलो थोड़ा-सा खा लो।

दयाशंकर—मुझे जरा भी भूख नहीं है।

गिरिजा—क्यों? आज भूख नहीं लगी?

दयाशंकर—तुम्हें तीन दिन से भूख क्यों नहीं लगी?

गिरिजा—मुझे तो इस वजह से नहीं लगी कि तुमने मेरे दिल को चोट पहुँचाई थी।

दयाशंकर—मुझे भी इस वजह से नहीं लगी कि तुमने मुझे तकलीफ़ दी है।

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