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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगर निराश संन्यासी सोच रहा था—अफ़सोस, जिस मुल्क की रोशनी में इतना अँधेरा है, वहाँ कभी रोशनी का उदय होना मुश्किल नज़र आता है। इस रोशनी पर, इस अँधेरी, मुर्दा और बेजान रोशनी पर मैं जहालत को, अज्ञान को ज़्यादा ऊँची जगह देता हूँ। अज्ञान में सफ़ाई है और हिम्मत है, उसके दिल और ज़बान में पर्दा नहीं होता, न कथनी और करनी में विरोध। क्या यह अफ़सोस की बात नहीं है कि ज्ञान अज्ञान के आगे सिर झुकाये? इस सारे मजमें में सिर्फ़ एक आदमी है, जिसके पहलू में मर्दों का दिल है, और गो उसे बहुत सजग होने का दावा नहीं लेकिन मैं उसके अज्ञान पर ऐसी हज़ारों जागृतियों को कुर्बान कर सकता हूँ। तब वह प्लेटफार्म से नीचे उतरे और दर्शनसिंह को गले से लगाकर कहा—ईश्वर तुम्हें प्रतिज्ञा पर क़ायम रखे।

—ज़माना, अगस्त-सितम्बर १९१३
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