कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
रोहिणी गालों पर हाथ रखकर सोचने लगी। नरोत्तमदास की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई। उनकी वह प्रेम की बातें, जिनका सिलसिला बम्बई से पूना तक नहीं टूटा था, कानों में गूँजने लगीं। उसने एक ठण्डी साँस ली और उदास होकर चारपाई पर लेट गई।
सरस्वती पाठशाला में एक बार फिर सजावट और सफाई के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। आज रोहिणी की शादी का शुभ दिन है। शाम का वक़्त, बसन्त का सुहाना मौसम, पाठशाला के दारो-दीवार मुस्करा रहे हैं और हरा-भरा बगीचा फूला नहीं समाता।
चन्द्रमा अपनी बारात लेकर पूरब की तरफ़ से निकला। उसी वक़्त मंगलाचरण का सुहाना राग उस रूपहली चाँदनी और हल्के-हल्के हवा के झोकों में लहरें मारने लगा। दूल्हा आया, उसे देखते ही लोग हैरत में आ गए। यह नरोत्तमदास थे।
दूल्हा मण्डप के नीचे गया। रोहिणी की माँ अपने को रोक न सकी, उसी वक़्त जाकर सेठ जी के पैर पर गिर पड़ी। रोहिणी की आँखों से प्रेम और आनन्द के आँसू बहने लगे।
मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना हुआ था। हवन शुरू हुआ, खुशबू की लपटें हवा में उठीं और सारा मैदान महक गया। लोगों के दिलो-दिमाग़ में ताज़गी की उमंग पैदा हुई। फिर संस्कार की बारी आई। दूल्हा और दुल्हन ने आपस में हमदर्दी; ज़िम्मेदारी और वफ़ादारी के पवित्र शब्द अपनी ज़बानों से कहे। विवाह की वह मुबारक जंजीर गले में पड़ी जिसमें वजन है, सख्ती है, पाबन्दियाँ हैं लेकिन वज़न के साथ सुख और पाबन्दियों के साथ विश्वास है। दोनों दिलों में उस वक़्त एक नयी, बलवान, आत्मिक शक्ति की अनुभूति हो रही थी।
जब शादी की रस्में खत्म हो गयीं तो नाच-गाने की मजलिस का दौर आया। मोहक गीत गूँजने लगे। सेठ जी थककर चूर हो गए थे। ज़रा दम लेने के लिए बागीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गये। ठण्डी-ठण्डी हवा आ रही थी। एक नशा-सा पैदा करने वाली शान्ति चारों तरफ़ छायी हुई थी। उसी वक़्त रोहिणी उनके पास आयी और उनके पैरों से लिपट गयी। सेठ जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और हँसकर बोले—क्यों, अब तो तुम मेरी अपनी बेटी हो गयीं?
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