कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
थोड़े ही दिनों के बाद मुसीबतों ने फिर उस पर हमला किया। ईश्वर ऐसा दिन दुश्मन को भी न दिखलाये। मैं एक महीने के लिए बम्बई चला गया था, वहाँ से लौटकर उससे मिलने गया। आह, वह दृश्य याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं और दिल डर से काँप उठता है। सुबह का वक़्त था। मैंने दरवाज़े पर आवाज़ दी और हमेशा की तरह बेतकल्लुफ अन्दर चला गया, मगर वहाँ साईंदयाल का वह हँसमुख चेहरा, जिस पर मर्दाना हिम्मत की ताज़गी झलकती थी, नज़र न आया। मैं एक महीने के बाद उनके घर जाऊँ और वह आँखों से रोते लेकिन होंठों से हँसते दौड़कर मेरे गले लिपट न जाय! ज़रूर कोई आफ़त है। उसकी बीवी सिर झुकाये आयी और मुझे उसके कमरे में ले गयी। मेरा दिल बैठ गया। साईंदयाल एक चारपाई पर मैले-कुचैले कपड़े लपेटे, आँखें बन्द किये, पड़ा दर्द से कराह रहा था। जिस्म और बिछौने पर मक्खियों के गुच्छे के गुच्छे बैठे हुए थे। आहट पाते ही उसने मेरी तरफ़ देखा। मेरे जिगर के टुकड़े हो गये। हड्डियों का ढाँचा रह गया था। दुर्बलता की इससे ज़्यादा सच्ची और करुण तस्वीर नहीं हो सकती। उसकी बीवी ने मेरी तरफ़ निराशाभरी आँखों से देखा। मेरी आँखों में आँसू भर आये। उस सिमटे हुए ढाँचे में बीमारी को भी मुश्किल से जगह मिलती होगी, जि़न्दगी का क्या ज़िक्र! आख़िर मैंने धीरे से पुकारा। आवाज़ सुनते ही वह बड़ी-बड़ी आँखें खुल गयीं लेकिन उनमें पीड़ा और शोक के आँसू न थे, सन्तोष और ईश्वर पर भरोसे की रोशनी थी। और वह पीला चेहरा! आह, वह गम्भीर संतोष का मौन चित्र, वह संतोषमय संकल्प की सजीव स्मृति। उसके पीलेपन में मर्दाना हिम्मत की लाली झलकती थी। मैं उसकी सूरत देखकर घबरा गया। क्या यह बुझते हुए चिराग़ की आख़िरी झलक तो नहीं है?
मेरी सहमी हुई सूरत देखकर वह मुस्कराया और बहुत धीमी आवाज़ में बोला—तुम ऐसे उदास क्यों हो, यह सब मेरे कर्मों का फल है।
मगर कुछ अजब बदकिस्मत आदमी था। मुसीबतों को उससे कुछ ख़ास मुहब्बत थी। किसे उम्मीद थी कि वह उस प्राणघातक रोग से मुक्ति पायेगा। डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। मौत के मुँह से निकल आया। अगर भविष्य का जरा भी ज्ञान होता तो सबसे पहले मैं उसे ज़हर दे देता। आह, उस शोकपूर्ण घटना को याद करके कलेजा मुँह को आता है। धिक्कार है इस ज़िन्दगी पर कि बाप अपनी आँखों से अपनी इकलौते बेटे का शोक देखे।
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