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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


कुंअर साहब ने मेरे सलाम को इस अन्दाज़ से लिया कि जैसे वह इसके आदी हैं। मसनद से उठकर उन्होंने बहुत बड़प्पन के ढंग से मेरी अगवानी की, खैरियत पूछी, और इस तकलीफ़ के लिए मेरा शुक्रिया अदा करने के बाद इतर और पान से मेरी तवाजो की। तब वह मुझे अपनी उस गढ़ी की सैर कराने चले जिसने किसी ज़माने में जरूर आसफुद्दौला को ज़िच किया होगा मगर इस वक़्त बहुत टूटी-फूटी हालत में थी। यहाँ के एक-एक रोड़े पर कुंअर साहब को नाज था। उनके खानदानी बड़प्पन ओर रोबदाब का जिक्र उनकी जबान से सुनकर विश्वास न करना असम्भव था। उनका बयान करने का ढंग यक़ीन को मजबूर करता था और वे उन कहानियों के सिर्फ़ पासबान ही न थे बल्कि वह उनके ईमान का हिस्सा थीं और जहाँ तक उनकी शक्ति में था, उन्होंने अपनी आन निभाने में कभी कसर नहीं की।

कुंअर सज्जनसिंह खानदानी रईस थे। उनकी वंश-परंपरा यहाँ-वहाँ टूटती हुई अन्त में किसी महात्मा ऋषि से जाकर मिल जाती थी। उन्हें तपस्या और भक्ति और योग का कोई दावा न था लेकिन इसका गर्व उन्हें अवश्य था कि वे एक ऋषि की सन्तान हैं। पुरखों के जंगली कारनामे भी उनके लिए गर्व का कुछ कम कारण न थे। इतिहास में उनका कहीं जिक्र न हो मगर ख़ानदानी भाट ने उन्हें अमर बनाने में कोई कसर न रखी थी और अगर शब्दों में कुछ ताक़त है तो यह गढ़ी रोहतास या कालिंजर के किलों से आगे बढ़ी हुई थी। कम-से-कम प्राचीनता और बर्बादी के बाह्य लक्षणों में तो उसकी मिसाल मुश्किल से मिल सकती थी, क्योंकि पुराने जमाने में चाहे उसने मुहासरों और सुरंगों को हेच समझा हो लेकिन इस वक़्त वह चीटियों और दीमकों के हमलों का भी सामना न कर सकती थी।

कुंअर सज्जनसिंह से मेरी भेंट बहुत संक्षिप्त थी लेकिन इस दिलचस्प आदमी ने मुझे हमेशा के लिए अपना भक्त बना लिया। बड़ा समझदार, मामले को समझनेवाला, दूरदर्शी आदमी था। आख़िर मुझे उसका बिन पैसों का गुलाम बनना था।

बरसात में सरयू नदी इस ज़ोर-शोर से चढ़ी कि हजारों गाँव बरबाद हो गए, बड़े-बड़े तनावर दरख्त़ तिनकों की तरह बहते चले जाते थे। चारपाइयों पर सोते हुए बच्चे-औरतें, खूंटों पर बंधे हुए गाय और बैल उसकी गरजती हुई लहरों में समा गए। खेतों में नाव चलती थी।

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