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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जलसे के ख़त्म होते ही मैंने पहला काम जो किया वह कुंअर साहब से इस चीज़ के बारे में जवाब तलब करना था।

मैंने पूछा—क्यों साहब आपके पास इस बेमौका हरकत का क्या जवाब है?

सज्जनसिंह ने गम्भीरता से जवाब दिया—आप सुनना चाहें तो जवाब हूँ।

‘‘शौक से फरमाइये।’’

‘‘अच्छा तो सुनिये। मैं शंकर की कविता का प्रेमी हूँ। शंकर की इज्ज़त करता हूँ, शंकर पर गर्व करता हूँ, शंकर को अपने और अपनी कौम के ऊपर एहसान करनेवाला समझता हूँ मगर उसके साथ ही उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानने या उनके चरणों में सिर झुकाने के लिए तैयार नहीं हूँ।’’

मैं आश्चर्य से उसका मुँह ताकता रह गया। यह आदमी नहीं, घमण्ड का पुतला है। देखें यह सिर कभी झुकता है या नहीं।

पूरनमासी का पूरा चाँद सरयू के सुनहरे फर्श पर नाचता था और लहरें खुशी से गले मिल-मिलकर गाती थीं। फागुन का महीना था, पेड़ों में कोपलें निकली थीं और कोयल कूकने लगी थीं।

मैं अपना दौरा करके सदर लौटता था। रास्ते में कुंअर सज्जनसिंह से मिलने का चाव मुझे उनके घर तक ले गया, जहाँ अब मैं बड़ी बेतकल्लुफी से जाता-आता था।

मैं शाम के वक़्त नदी की सैर को चला। वह प्राणदायिनी हवा, वह उड़ती हुई लहरें, वह गहरी निस्तब्धता—सारा दृश्य एक आकर्षक सुहाना सपना था। चाँद के चमकते हुए गीत से जिस तरह लहरें झूम रही थीं, उसी तरह मीठी चिन्ताओं से दिल उमड़ा आता था। मुझे ऊँचे कगार पर एक पेड़ के नीचे कुछ रोशनी दिखायी दी। मैं ऊपर चढ़ा। वहाँ बरगद की घनी छाया में धूनी जल रही थी। उसके सामने एक साधू पैर फैलाये बरगद की एक मोटी जटा के सहारे लेटे हुए थे। उनका चमकता हुआ चेहरा आग की चमक को लजाता था। नीले तालाब में कमल खिला हुआ था।

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