कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मलका ने शीशियों और पाउडर के टिन तड़ाक-तड़ाक पटक दिये, सोने के जेवरों को उतारकर फेंक दिया कि इतने में बुलहवस खाँ धाड़ें मार कर रोता हुआ आकर खड़ा हुआ और हाथ बाँधकर कहने लगा—दोनों जहानों की मलका, मैं आपका नाचीज़ गुलाम हूँ, आप मुझसे नाराज़ हैं?
मलका ने बदला लेने के अपने जोश में मिट्टी के घरौंदों को पैरों से ठुकरा दिया। ठीकरों के अम्बार को ठोकरें मारकर बिखेर दिया। बुलहवस के शरीर का एक-एक अंग कट-कटकर गिरने लगा। वह बेदम होकर ज़मीन पर गिर पड़ा और दम के दम में जहन्नुम रसीद हुआ। संतोखसिंह ने मलका से कहा—देखा तुमने? इस दुश्मन को तुम कितना डरावना समझती थीं, आन की आन में खाक में मिल गया।
मलका—काश, मुझे यह हिकमत मालूम होती तो मैं कभी की आज़ाद हो जाती। लेकिन अभी और भी तो कितने ही दुश्मन हैं।
संतोख—उनको मारना इससे भी आसान है। चलो कर्णसिंह के पास, ज्यों ही वह अपना सुर अलापने लगे और मीठी-मीठी बातें करने लगे, कानों पर हाथ रख लो, देखो, अदृश्य के पर्दे से फिर क्या चीज़ सामने आती है।
मलका कर्णसिंह के दरबार में पहुँची। उसे देखते ही चारों तरफ़ से ध्रुपद और तिल्लाने के वार होने लगे। पियानो बजने लगे। मलका ने दोनों कान बन्द कर लिये। कर्णसिंह के दरबार में आग का शोला उठने लगा। सारे दरबारी जलने लगे। कर्णसिंह दौड़ा हुआ आया और बड़े विनय-पूर्वक मलका के पैरों पर गिरकर बोला—हुजूर, अपने इस हमेशा के गुलाम पर रहम करें। कानों पर से हाथ हटा लें; वर्ना इस ग़रीब की जान पर बन जायेगी। अब कभी हुजूर की शान में यह गुस्ताख़ी न होगी।
मलका ने कहा—अच्छा, जा तेरी जाँ-बख्शी की। अब कभी बग़ावत न करना वर्ना जान से हाथ धोएगा। कर्णसिंह ने संतोखसिंह की तरफ़ प्रलय की आँखों से देखकर सिर्फ़ इतना कहा—‘जालिम, तुझे मौत भी नहीं आयी’ और बेतहाशा गिरता-पड़ता भागा। संतोखसिंह ने मलका से कहा—देखा तुमने, इनको मारना कितना आसान था? अब चलो लोचनदान के पास। ज्योंही वह अपने करिश्मे दिखाने लगे, दोनों आँखें बन्द कर लेना।
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