कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
ख़्वाजा साहब—आपको फ़तेह का यक़ीन है?
असकरी—पूरा यक़ीन है।
दूर-पास से ‘जंग’जंग’ की गरजती हुई आवाजों का ताँता बँध गया कि जैसे हिमालय के किसी अथाह खड्ड से हथौड़ों की झनकार आ रही हो। शहर काँप उठा, ज़मीन थर्राने लगी, हथियार बँटने लगे। दरबारियों ने एक मत लड़ाई का फ़ैसला किया। ग़ैरत जो कुछ न कर सकती थी, वह अवाम के नारे ने कर दिखाया।
आज से तीस साल पहले एक ज़बर्दस्त इन्कलाब ने जयगढ़ को हिला डाला था। वर्षों तक आपसी लड़ाइयों का दौर रहा, हजारों ख़ानदान मिट गये। सैकड़ों कस्बे वीरान हो गये। बाप, बेटे के ख़ून का प्यासा था। भाई, भाई की जान का ग्राहक। जब आख़िरकार आज़ादी की फ़तेह हुई तो उसने ताज के फ़िदाइयों को चुन-चुन कर मारा। मुल्क के क़ैदखाने देश-भक्तों से भर उठे। उन्हीं जाँबाजों में एक मिर्जा मंसूर भी था। उसे कन्नौज के किले में क़ैद किया गया जिसके तीन तरफ़ ऊँची दीवारें थीं। और एक तरफ़ गंगा नदी। मंसूर को सारे दिन हथौड़े चलाने पड़ते। सिर्फ़ शाम को आध घंटे के लिए नमाज़ की छुट्टी मिलती थी। उस वक़्त मंसूर गंगा के किनारे आ बैठता और देशभाइयों की हालत पर रोता। वह सारी राष्ट्रीय और सामाजिक व्यवस्था जो उसके विचार में राष्ट्रीयता का आवश्यक अंग थी, इस हंगामे की बाढ़ में नष्ट हो रही थी। वह एक ठण्डी आह भरकर कहता—जयगढ़, अब तेरा खुदा ही रखवाला है, तूने ख़ाक को अक्सीर बनाया और अक्सीर को ख़ाक। तूने ख़ानदान की इज्ज़त को, अदब और इख़लाक़ को, इल्मो-कमाल को मिटा दिया, बर्बाद कर दिया। अब तेरी बागडोर हमारे हाथ में नहीं है, चरवाहे तेरे रखवाले और बनिये तेरे दरबारी हैं। मगर देख लेना यह हवा है, और चरवाहे और साहूकार एक दिन तुझे ख़ून के आँसू रुलायेंगे। धन और वैभव अपना ढंग न छोड़ेगा, हुकूमत अपना रंग न बदलेगी, लोग चाहे बदल जाएँ, लेकिन निज़ाम वही रहेगा। यह तेरे नए शुभ चिन्तक जो इस वक़्त विनय और सत्य और न्याय की मूर्तियाँ बने हुए हैं, एक दिन वैभव के नशे में मतवाले होंगे, उनकी शक्तियाँ ताज की शक्तियों से कहीं ज़्यादा सख़्त होंगी और उनके जुल्म कहीं इससे ज़्यादा तेज।
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