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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


यह गीत इससे पहले भी लोगों ने सुना था मगर इस वक़्त का-सा असर कभी दिलों पर नहीं हुआ था। किसी के सब दिन बराबर नहीं जाते यह कहावत रोज़ सुनते थे। आज उसका मतलब समझ में आया। किसी रईस को वह दिन याद आया जब खुद उसके सिर पर ताज था, आज वह किसी का ग़ुलाम है। किसी को अपने बचपन की लाड़-प्यार की गोद याद आयी, किसी को वह ज़माना याद आया, जब वह जीवन के मोहक सपने देख रहा था। मगर अफ़सोस अब वह सपना तितर-बितर हो गया। वृन्दा भी बीते हुए दिनों को याद करने लगी। एक दिन वह था कि उसके दरवाजे पर अताइयों और गानेवालों की भीड़ रहती थी और दिल में खुशियों की। और आज, आह आज! इसके आगे वृन्दा कुछ न सोच सकी। दोनों हालातों का मुक़ाबिला बहुत दिल तोड़नेवाला था, निराशा से भर देनेवाला। उसकी आवाज़ भारी हो गयी और रोने से गला बैठ गया।

महाराजा रनजीतसिंह श्यामा के तर्ज़ व अन्दाज को गौर से देख रहे थे। उनकी तेज़ निगाहें उसके दिल में पहुँचने की कोशिश कर रही थीं। लोग अचंभे में पड़े हुए थे कि क्यों उनकी ज़बान से तारीफ़ और क़द्रदानी की एक बात भी न निकली। वह ख़ुश न थे, उदास भी न थे, वह ख़याल में डूबे हुए थे। उन्हें हुलिए से साफ़ पता चल रहा था कि यह औरत हरग़िज अपनी अदाओं को बेचनेवाली औरत नहीं है। यकायक वह उठ खड़े हुए और बोले—श्यामा, वृहस्पति को मैं फिर तुम्हारा गाना सुनूँगा।

वृन्दा के चले जाने के बाद उसका फूल-सा बच्चा राजा उठा और आँखें मलता हुआ बोला—अम्माँ कहाँ है?

प्रेमसिंह ने उसे गोद में लेकर कहा—अम्माँ मिठाई लेने गयी हैं।

राजा ख़ुश हो गया, बाहर जाकर लड़कों के साथ खेलने लगा। मगर कुछ देर बाद फिर बोला—अम्माँ मिठाई।

प्रेमसिंह ने मिठाई लाकर दी। मगर राजा रो-रोकर कहता रहा, अम्माँ मिठाई। वह शायद समझा था कि अम्माँ की मिठाई इस मिठाई से ज़्यादा मीठी होगी।

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