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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


आल्हा—जी हाँ, जानता हूँ।

परमाल—तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बिगाड़ सकता हूँ।

आल्हा से अब सब्र न हो सका, उसकी आँखें लाल हो गयीं और त्योरियों पर बल पड़ गये। तेज़ लहजे में बोला—महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान किए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूँगा। क्षत्रिय कभी एहसान नहीं भूलता। मगर आपने मेरे ऊपर एहसान किए हैं, तो मैंने भी जी तोड़कर आपकी सेवा की है। सिर्फ नौकरी और नमक का हक़ अदा करने का भाव मुझमें वह निष्ठा और गर्मी नहीं पैदा कर सकता जिसका मैं बार-बार परिचय दे चुका हूँ। मगर खै़र, अब मुझे विश्वास हो गया कि इस दरबार में मेरा गुजर न होगा। मेरा आख़िरी सलाम कबूल हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भूल की है वह माफ़ की जाए।

माहिल की ओर देखकर उसने कहा—मामा जी, आज से मेरे और आपके बीच ख़ून का रिश्ता टूटता है। आप मेरे ख़ून के प्यासे हैं तो मैं भी आपकी जान का दुश्मन हूँ।

आल्हा की माँ का नाम देवल देवी था। उसकी गिनती उन हौसले वाली उच्च विचार स्त्रियों में है जिन्होंने हिन्दोस्तान के पिछले कारनामों को इतना स्पृहणीय बना दिया है। उस अँधेरे युग में भी जबकि आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मुल्क में आ पहुँची थी, हिन्दोस्तान में ऐसी-ऐसी देवियाँ पैदा हुईं जो इतिहास के अँधेरे से अँधेरे पन्नों को भी ज्योतित कर सकती हैं। देवल देवी ने सुना कि आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या किया तो उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने दोनों भाइयों को गले लगाकर कहा—बेटा, तुमने वही किया जो राजपूतों का धर्म था। मैं बड़ी भाग्यशालिनी हूँ कि तुम जैसे दो बात की लाज रखने वाले बेटे पाये हैं।

उसी रोज दोनों भाइयों ने महोबा से कूच कर दिया अपने साथ अपनी तलवार और घोड़ों के सिवा और कुछ न लिया। माल-असबाब सब वहीं छोड़ दिये। सिपाही की दौलत और इज्जत सब कुछ उसकी तलवार है। जिसके पास वीरता की सम्पति है उसे दूसरी किसी सम्पत्ति की जरूरत नहीं।

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