लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


निरंजनदास यह करकर चले गये। मैंने हजामत बनायी, कपड़े बदले और मिस लीलावती से मिलने का चाव मन में लेकर चला। वहाँ जाकर देखा तो ताला पड़ा हुआ है। मालूम हुआ कि मिस साहिबा की तबीयत दो-तीन दिन से ख़राब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गयी हैं अफ़सोस, मैं हाथ मलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज़ थी? उसने मुझे क्यों ख़बर नहीं दी। लीला, क्या तू बेवफा है, तुझसे बेवफ़ाई की उम्मीद न थी। फ़ौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूँ। मगर घर आया तो लीला का ख़त मिला काँपते हाथों से खोला, लिखा था—मैं बीमार हूँ, मेरे जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा किस्सा तमाम हो जाएगा। आख़िरी वक़्त तुमसे न मिलने का सख़्त सदमा है। मेरी याद दिल में क़ायम रखना। मुझे सख़्त अफ़सोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा क़सूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना। खत मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। दुनियाँ आँखों से अंधेरी हो गयी, मुँह से एक ठंडी आह निकली। बिना एक क्षण गँवाये मैंने बिस्तर बाँधा और नैनीताल चलने के लिए तैयार हो गया। घर से निकला ही था कि प्रोफ़ेसर बोस से मुलाक़ात हो गयी। कालेज से चले आ रहे थे, चेहरे पर शोक लिखा हुआ था। मुझे देखते ही उन्होंने जेब से एक तार निकालकर मेरे सामने फेंक दिया। मेरा कलेजा धक् से हो गया। आँखों में अँधेरा छा गया, तार कौन उठाता है। और हाथ मार कर बैठ गया। लीला, तुम इतनी जल्दी मुझसे जुदा हो गयी!

मैं रोता हुआ घर आया और चारपाई पर मुँह ढाँपकर खूब रोया। नैनीताल जाने का इरादा खत्म हो गया। दस-बारह दिन में उन्माद की-सी दशा में इधर-उधर घूमता रहा। दोस्तों की सलाह हुई कि कुछ रोज़ के लिए कहीं घूमने चले जाओ। मेरे दिल में भी यह बात जम गयी। निकल खड़ा हुआ और दो महीने तक विंध्याचल, पारसनाथ वग़ैरह पहाड़ियों में आवारा फिरता रहा। ज्यों-त्यों करके नई-नई जगहों और दृश्यों की सैर से तबीयत तो ज़रा तस्कीन हुई। मैं आबू में था जब मेरे नाम तार पहुँचा कि मैं कालेज की असिस्टेण्ट प्रोफ़ेसरी के लिए चुना गया हूँ। जी तो न चाहता था कि फिर इस शहर में आऊँ, मगर प्रिन्सिपल के खत ने मजबूर कर दिया। लाचार, लौटा और अपने काम में लग गया। ज़िन्दादिली नाम को न बाक़ी रही थी। दोस्तों की संगत से भागता और हँसी मज़ाक से चिढ़ मालूम होती।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book