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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मेहर सिंह न ज़ब्त करके कहा—नहीं, रोऊँ क्यों, और मेरी तरफ़ बड़ी दर्द भरी आँखों से देखा।

मैं—तुम्हारे सिसकने की आवाज़ आयी।

मेहर सिंह—वह कुछ बात न थी। घर की याद आ गयी थी।

मैं—सच बोलो।

मेहर सिंह की आँखें फिर डबडबा आयीं। उसने मेज़ पर से आइना उठाकर मेरे सामने रख दिया। हे नारायण! मैं खुद अपने को पहचान न सका। चेहरा इतना ज़्यादा बदल गया था। रंगत बजाय सुर्ख के सियाह हो रही थी और चेचक के बदनुमा दाग़ों ने सूरत बिगाड़ दी थी। अपनी यह बुरी हालत देखकर मुझसे भी ज़ब्त न हो सका और आँखें डबडबा गयीं। वह सौन्दर्य जिस पर मुझे इतना गर्व था बिलकुल विदा हो गया था।

शिमले से वापस आने की तैयारी कर रहा था। मेहर सिंह उसी रोज़ मुझसे विदा होकर अपने घर चला गया था। मेरी तबीयत बहुत उचाट हो रही थी। असबाब सब बँध चुका था कि एक गाड़ी मेरे दरवाजे पर आकर रुकी और उसमें से कौन उतरा। मिस लीला! मेरी आँखों को विश्वास न हो रहा था, चकित होकर ताकने लगा। मिस लीलावती ने आगे बढ़कर मुझे सलाम किया और हाथ मिलाने को बढ़ाया। मैंने भी बौखलाहट में हाथ तो बढ़ा दिया मगर अभी तक यह यक़ीन नहीं हुआ था कि मैं सपना देख रहा हूँ यह हक़ीक़त है। लीला के गालों पर वह लाली न थी न वह चुलबुलापन बल्कि वह बहुत गम्भीर और पीली-पीली सी हो रही थी। आख़िर मेरी हैरत कम न होते देखकर उसने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा तुम कैसे जेण्टिलमैन हो कि एक शरीफ़ लेडी को बैठने के लिए कुर्सी भी नहीं देते!

मैंने अन्दर से कुर्सी लाकर उसके लिए रख दी। मगर अभी तक यही समझ रहा था कि सपना देख रहा हूँ।

लीलावती ने कहा—शायद तुम मुझे भूल गये।

मैं—भूल तो उम्र भर नहीं सकता मगर आँखों का एतबार नहीं आता।

लीला—तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते।

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