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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जोज़ेफ—मेगा, शायद वह लोग सच कहते होंगे। फ़िलहाल मुझमें वह गुण नहीं है जो मैं शान के मारे अक्सर कहा करता हूँ कि मुझमें है या जिन्हें तुम अपनी सरलता और पवित्रता के कारण मुझमें मौजूद समझती हो। मेरी कमज़ोरियाँ रोज़-ब-रोज़ मुझे मालूम होती जाती हैं।

मैग्डलीन—जभी तो तुम इस काबिल हो कि मैं तुम्हारी पूजा करूँ मुबारक है वह इन्सान जो खुदी को मिटाकर अपने को हेच समझने लगे। जोज़ेफ़, भगवान के लिए मुझे इस तरह अपने से मत अलग करो। मैं तुम्हारी हो गयी हूँ और मुझे विश्वास है कि तुम वैसे ही पाक साफ़ हो जैसा हमारा ईसू था। यह ख़याल मेरे मन पर अंकित हो गया है और अगर उसमें ज़रा क़मजोरी आ गयी थी तो तुम्हारी इस वक़्त की बातचीत ने उसे और भी पक्का कर दिया। बेशक तुम फ़रिश्ते हो। मगर मुझे अफसोस है कि दुनिया में क्यों लोग इतने तंग-दिल और अंधे होते हैं और खासतौर पर वह लोग जिन्हें मैं तंग ख़यालों से ऊपर समझती थी। रफ़ेती, रसारीनो, पलाइनो, बर्नाबास यह सब के सब तुम्हारे दोस्त हैं। तुम उन्हें अपना दोस्त समझते हो, मगर वह सब तुम्हारे दुश्मन हैं और उन्होंने मुझसे मेरे सामने सैकड़ों ऐसी बातें तुम्हारे बारे में कही हैं जिनका मैं मरकर भी यक़ीन नहीं कर सकती। वह सब ग़लत झूठ बकते हैं हमारा प्यारा जोज़ेफ़ वैसा ही है जैसा मैं समझती थी बल्कि उससे भी अच्छा। क्या यह भी तुम्हारी एक जाती खूबी नहीं है कि तुम अपने दुश्मनों को भी अपना दोस्त समझते हो?

जोजेफ़ से अब सब्र न हो सका। मैग्डलीन के मुरझाये हुए पीले-पीले हाथों को चूमकर कहा—प्यारी मेगा, मेरे दोस्त बेकसूर हैं और मैं खुद दोषी हूँ (रोकर) जो कुछ उन्होंने कहा व सब मेरे ही इशारे और मर्जी के अनुसार था, मैंने तुमसे दग़ा की मगर मेरी प्यारी बहन, यह सिर्फ इसलिए थी कि तुम मेरी तरफ़ से बेपरवाह हो जाओ और अपनी जवानी के बाक़ी दिन खुशी से बसर करो। मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। मैंने तुम्हें ज़रा भी न समझा था। मैं तुम्हारे प्रेम की गहराई से अपरिचित था क्योंकि मैं जो चाहता था उसका उल्टा असर हुआ। मगर मेगा, मैं माफ़ी चाहता हूँ।

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