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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मुझे फिर ज़ब्त न रहा। अकड़कर बोली– और मैं तुझे क्या समझती हूँ एक कुतिया, दूसरों की उगली हुई हड्डियाँ चिचोड़ती फिरती है।

अब सईद के भी तेवर बदले मेरी तरफ़ भयानक आँखों से देखकर बोले– जुबैदा, तुम्हारे सर पर शैतान तो नहीं सवार है?

सईद का यह जुमला मेरे जिगर में चुभ गया, तपड़ उठी, जिन होठों से हमेशा मुहब्बत और प्यार की बातें सुनी हों उन्हीं से यह ज़हर निकले और बिल्कुल बेक़सूर! क्या मैं ऐसी नाचीज़ और हक़ीर हो गयी हूँ कि एक बाज़ारू औरत भी मुझे छेड़कर गालियाँ दे सकती है और मेरा ज़बान खोलना मना! मेरे दिल में साल भर से जो बुख़ार जमा हो रहा था, वह उछल पड़ा। मैं झूले से उतर पड़ी और सईद की तरफ़ शिकायत-भरी निगाहों से देखकर बोली– शैतान मेरे सर पर सवार है या तुम्हारे सर पर, इसका फैसला तुम खुद कर सकते हो। सईद, मैं तुमको अब तक शरीफ़ और गैरतवाला समझती थी, तुमने मेरे साथ बेवफाई की, इसका मलाल मुझे ज़रूर था, मगर मैंने सपने में भी यह न सोचा था कि तुम ग़ैरत से इतने खाली हो कि हया-फ़रोश औरत के पीछे मुझे इस तरह ज़लील करोगे। इसका बदला तुम्हें खुदा से मिलेगा।

हसीना ने तेज़ होकर कहा– तू मुझे हया फ़रोश कहती है?

मैं– बेशक कहती हूँ।

सईद– और मैं बेग़ैरत हूँ?

मैं–  बेशक! बेग़ैरत ही नहीं, शोबदेबाज, मक्कार, पापी, सब कुछ। यह अल्फाज़ बहुत घिनावने हैं लेकिन मेरे गुस्से के इज़हार के लिए काफ़ी नहीं।

मैं यह बातें कह रही थी कि यकायक सईद के लम्बे तगड़े, हटटे-कटटे नौकर ने मेरी दोनों बाहें पकड़ ली और पलक मारते भर में हसीना ने झूले की रस्सियाँ उतार कर मुझे बरामदे के एक लोहे के खम्भे से बाँध दिया।

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