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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


यह कहकर उस ज़ालिम ने मेरी पीठ पर एक कमची जोर से मारी। मैं तिलमिला गयी मालूम हुआ कि किसी ने पीठ पर आग की चिनगारी रख दी। मुझसे ज़ब्त न हो सका। माँ-बाप ने कभी फूल की छड़ी से भी न मारा था। जोर से चीख़ें मार-मारकर रोने लगी। स्वाभिमान, लज्जा सब लुप्त हो गयी। क़मची की डरावनी और रौशन असलियत के सामने और भावनाएँ गायब हो गयीं। उन हिन्दू देवियों के दिल शायद लोहे के होते होंगे जो अपनी आन पर आग में कूद पड़ती थीं। मेरे दिल पर तो इस वक़्त यही ख़याल छाया हुआ था कि इस मुसीबत से क्योंकर छुटकारा हो सईद तस्वीर की तरह ख़ामोश खड़ा था। मैं उसकी तरफ़ फरियाद की आँखों से देखकर बड़े विनती के स्वर में बोली– सईद खुदा के लिए मुझे इस ज़ालिम से बचाओ, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, तुम मुझे ज़हर दे दो, खंज़र से गर्दन काट लो लेकिन यह मुसीबत सहने की मुझमें ताब नहीं। उन दिलजोइयों को याद करो, मेरी मुहब्बत को याद करो, उसी के सदके इस वक़्त मुझे इस अजाब से बचाओ, खुदा तुम्हें इसका इनाम देगा।

सईद इन बातों से कुछ पिघला। हसीना की तरफ़ डरी हुई आँखों से देखकर बोला– ज़रीना मेरे कहने से अब जाने दो। मेरी ख़ातिर से इन पर रहम करो।

ज़रीना तेवर बदल कर बोली– तुम्हारी ख़ातिर से सब कुछ कर सकती हूँ, गालियाँ नहीं बर्दाश्त कर सकती।

सईद– क्या अभी तुम्हारे ख़याल में गालियों की काफ़ी सजा नहीं हुई?

ज़रीना– तब तो आपने मेरी इज़्ज़त की ख़ूब कद्र की! मैंने रानियों से चिलमचियां उठवायी हैं, यह बेगम साहबा है किस ख्याल में? मैं इसे अगर कुछ छुरी से काटूँ तब भी इसकी बदजबानियों की काफ़ी सजा न होगी।

सईद– मुझसे अब यह जुल्म नहीं देखा जाता।

ज़रीना– आँखें बन्द कर लो।

सईद– ज़रीना, गुस्सा न दिलाओ, मैं कहता हूँ, अब इन्हें माफ़ करो।

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