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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


यकायक सईद की फिंटन नज़र आयी। मैं उस पर कई बार सैर कर चुकी थी। सईद अच्छे कपड़े पहने अकड़ा हुआ बैठा था। ऐसा सजीला, बांका जवान सारे शहर में न था, चेहरे-मोहरे से मर्दानापन बरसता था। उसकी आँख एक बारे मेरे कोठे की तरफ़ उठी और नीचे झुक गयी। उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी जैसे किसी जहरीले सांप ने काट खाया हो। उसने कोचवान से कुछ कहा, दम के दम में फ़िटन हवा हो गयी। इस वक़्त उसे देखकर मुझे जो द्वेषपूर्ण प्रसन्नता हुई, उसके सामने उस जानलेवा दर्द की कोई हक़ीक़त न थी। मैंने ज़लील होकर उसे ज़लील कर दिया। यह कटार क़मचियों से कहीं ज़्यादा तेज़ थी। उसकी हिम्मत न थी कि अब मुझसे आँख मिला सके। नहीं, मैंने उसे हरा दिया, उसे उम्र-भर के लिए कैद में डाल दिया। इस कालकोठरी से अब उसका निकलना गैर-मुमकिन था क्योंकि उसे अपने खानदान के बड़प्पन का घमण्ड था।

दूसरे दिन भोर में ख़बर मिली कि किसी क़ातिल ने मिर्जा सईद का काम तमाम कर दिया। उसकी लाश उसी बागीचे के गोल कमरे में मिली। सीने में गोली लग गयी थी। नौ बजे दूसरे ख़बर सुनायी दी, ज़रीना को भी किसी ने रात के वक़्त क़त्ल कर डाला था। उसका सर तन जुदा कर दिया गया। बाद को जांच-पड़ताल से मालूम हुआ कि यह दोनों वारदातें सईद के ही हाथों हुईं। उसने पहले ज़रीना को उसके मकान पर क़त्ल किया और तब अपने घर आकर अपने सीने में गोली मारी। इस मर्दाना गैरतमन्दी ने सईद की मुहब्बत मेरे दिल में ताज़ा कर दी।

शाम के वक़्त मैं अपने मकान पर पहुँच गयी। अभी मुझे यहाँ से गये हुए सिर्फ़ चार दिन गुजरे थे मगर ऐसा मालूम होता था कि वर्षों के बाद आयी हूँ। दरोदीवार पर हसरत छायी हुई थी। मैंने घर में पाँव रक्खा तो बरबस सईद की मुस्कराती हुई सूरत आँखों के सामने आकर खड़ी हो गयी– वही मर्दाना हुस्न, वहीं बांकपन, वही मनुहार की आँखें। बेअख़्तियार मेरी आँखें भर आयी और दिल से एक ठण्डी आह निकल आयी। ग़म इसका न था कि सईद ने क्यों जान दे दी। नहीं, उसकी मुजरिमाना बेहिसी और रूप के पीछे भागना इन दोनों बातों को मैं मरते दम तक माफ़ न करूँगी। गम यह था कि यह पागलपन उसके सर में क्यों समाया? इस वक़्त दिल की जो कैफ़ियत है उससे मैं समझती हूँ कि कुछ दिनों में सईद की बेवफाई और बेरहमी का घाव भर जाएगा, अपनी जिल्लत की याद भी शायद मिट जाय, मगर उसकी चन्दरोजा मुहब्बत का नक्श बाकी रहेगा और अब यही मेरी ज़िन्दगी का सहारा है।

– उर्दू ‘प्रेम पचीसी’ से
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