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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘तो क्या मैं ग़लत कहती थी?’

‘बिलकुल ग़लत। आपने खुद अपनी ग़लती साबित कर दी। ऐसे खस्ते मैंने ज़िन्दगी में भी न खाये थे।’

‘आप मुझे बनाते हैं, अच्छा साहब बना लीजिए।’

‘नहीं, मैं बनाता नहीं, बिलकुल सच कहता हूँ। किस-किस चीज़ की तारीफ़ करूं? चाहता हूँ कि कोई ऐब निकालूँ, लेकिन सूझता ही नहीं। अबकी मैं अपने दोस्तों की दावत करूँगा तो आपको एक दिन तकलीफ़ दूँगा।’

‘हाँ, शौक़ से कीजिए, मैं हाज़िर हूँ’

खाते-खाते दस बज गये। तिलोत्तमा सो गयी। गली में भी सन्नाटा हो गया। ईश्वरदास चलने को तैयार हुआ, तो माया बोली– क्या आप चले जाएँगे? क्यों न आज यहीं सो रहिए? मुझे कुछ डर लग रहा है। आप बाहर के कमरे में सो रहिएगा, मैं अन्दर आँगन में सो रहूँगी।

ईश्वरदास ने क्षण-भर सोचकर कहा– अच्छी बात है। आपने पहले कभी न कहा कि आपको इस घर में डर लगता है वर्ना मैं किसी भरोसे की बुड्ढी औरत को रात को सोने के लिए ठीक कर देता।

ईश्वरदास ने तो कमरे में आसन जमाया, माया अन्दर खाना खाने गयी। लेकिन आज उसके गले के नीचे एक कौर भी न उतर सका। उसका दिल जोर-जोर से घड़क रहा था। दिल पर एक डर-सा छाया हुआ था। ईश्वरदास कहीं जाग पड़ा तो? उसे उस वक़्त कितनी शर्मिन्दगी होगी!

माया ने कटार को ख़ूब तेज कर रखा था। आज दिन-भर उसे हाथ में लेकर अभ्यास किया। वह इस तरह वार करेगी कि खाली ही न जाये। अगर ईश्वरदास जाग ही पड़ा तो जानलेवा घाव लगेगा।

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