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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अमरनाथ ने पण्डितजी को धन्यवाद दिया और जब अँधेरा हो गया तो दुकान के पिछवाड़े की तरफ़ जा पहुँचे। डर रहे थे, कहीं यहाँ भी घेरा न पड़ा हो। लेकिन मैदान खाली था। लपककर अन्दर गये, एक ऊंचे दामों की साड़ी ख़रीदी और बाहर निकले तो एक देवीजी केसरिया साड़ी पहने खड़ी थीं। उनको देखकर इनकी रूह फ़ना हो गयी, दरवाज़े से बाहर पाँव रखने की हिम्मत नहीं हुई। एक तरफ़ देखकर तेज़ी से निकल पड़े और कोई सौ कदम भागते हुए चले गये। कर्म का लिखा, सामने से एक बुढ़िया लाठी टेकती चली आ रही थी। आप उससे लड़ गये। बुढ़िया गिर पड़ी और लगी कोसने– अरे अभागे, यह जवानी बहुत दिन न रहेगी, आँखों में चर्बी छा गयी है, धक्के देता चलता है!

अमरनाथ उसकी खुशामद करने लगे– भाई माफ़ करो, मुझे रात को कुछ कम दिखाई पड़ता है। ऐनक घर भूल आया।

बुढ़िया का मिज़ाज ठण्डा हुआ, आगे बढ़ी और आप भी चले। एकाएक कानों में आवाज़ आयी, ‘बाबू साहब, जरा ठहरियेगा’ और वही केसरिया कपड़ों वाली देवी जी आती हुई दिखायी दीं।

अमरनाथ के पाँव बंध गये। इस तरह कलेजा मज़बूत करके खड़े हो गये जैसे कोई स्कूली लड़का मास्टर की बेंत के सामने खड़ा होता है।

देवीजी ने पास आकर कहा– आप तो ऐसे भागे कि मैं जैसे आपको काट खाऊँगी। आप जब पढ़े-लिखे आदमी होकर अपना धर्म नहीं समझते तो दुख होता है। देश की क्या हालत है, लोगों को खद्दर नहीं मिलता, आप रेशमी साड़ियाँ खरीद रहे हैं!

अमरनाथ ने लज्जित होकर कहा– मैं सच कहता हूँ देवीजी, मैंने अपने लिए नहीं खरीदी, एक साहब की फ़रमाइश थी।

देवीजी ने झोली से एक चूड़ी निकालकर उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा– ऐसे हीले रोज़ ही सुना करती हूँ। या तो आप उसे वापस कर दीजिए या लाइए हाथ में चूड़ी पहना दूँ।

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