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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


कुछ दिनों तक इस रूखेपन ने मुझे ख़ूब रुलाया। मुहब्बत के मज़े याद आ आकर तड़पा देते। मैंने पढ़ा था कि प्रेम अमर होता है। क्या, वह स्त्रोत इतनी जल्दी सूख गया? आह, नहीं वह अब भी लहरें मार रहा था। पर अब उसका बहाव किसी दूसरी ओर था। वह अब किसी दूसरे चमन को शादाब करता था। आख़िर मैं भी सईद से आँखें चुराने लगी। बेदिली से नहीं, सिर्फ़ इसलिए कि अब मुझे उससे आँखें मिलाने की ताब न थी। उसे देखते ही मुहब्बत के हज़ारों करिश्मे नज़रों के सामने आ जाते और आँखें भर आतीं। मेरा दिल अब भी उसकी तरफ़ खिंचता था कभी-कभी बेअख़्तियार जी चाहता कि उसके पैरों पर गिरूँ और कहूँ– मेरे दिलदार, यह बेरहमी क्यों? क्या तुमने मुझसे मुँह फेर लिया है। मुझसे क्या ख़ता हुई? लेकिन इस स्वाभिमान का बुरा हो जो दीवार बनकर रास्ते में खड़ा हो जाता।

यहाँ तक कि धीरे-धीरे मेरे दिल में भी मुहब्बत की जगह हसरत ने ले ली। निराशा के धैर्य ने दिल को तसकीन दी। मेरे लिए सईद अब बीते हुए बसन्त का एक भूला हुआ गीत था। दिल की गर्मी ठण्डी हो गयी। प्रेम का दीपक बुझ गया। यही नहीं, उसकी इज़्ज़त भी मेरे दिल से रुख़सत हो गयी। जिस आदमी के प्रेम के पवित्र मन्दिर में मैल भरा हुआ हो वह हरगिज़ इस योग्य नहीं कि मैं उसके लिए घुलूँ और मरूँ।

एक रोज़ शाम के वक़्त मैं अपने कमरे में पलंग पर पड़ी एक किस्सा पढ़ रही थी, तभी अचानक एक सुन्दर स्त्री मेरे कमरे में आयी। ऐसा मालूम हूआ कि जैसे कमरा जगमगा उठा। रूप की ज्योति ने दरो-दीवार को रोशान कर दिया। गोया अभी सफ़ेदी हुई है। उसकी अलंकृत शोभा, उसका खिला हुआ, फूल जैसा लुभावना चेहरा, उसकी नशीली मिठास, किसकी तारीफ़ करूँ। मुझ पर एक रोब-सा छा गया। मेरा रूप का घमंड धूल में मिल गया। मैं आश्चर्य में थी कि यह कौन रमणी है और यहाँ क्योंकर आयी। बेअख़्तियार उठी कि उससे मिलूँ और पूछूँ कि सईद भी मुस्कराता हुआ कमरे में आया। मैं समझ गयी कि यह रमणी उसकी प्रेमिका है। मेरा गर्व जाग उठा। मैं उठी ज़रूर पर शान से गर्दन उठाये हुए आँखों में हुस्न के रौब की जगह घृणा का भाव आ बैठा। मेरी आँखों में अब वह रमणी रूप की देवी नहीं डसने वाली नागिन थी। मैं फिर चारपाई पर बैठ गई और किताब खोलकर सामने रख ली– वह रमणी एक क्षण तक खड़ी मेरी तस्वीरों को देखती रही तब कमरे से निकली चलते वक़्त उसने एक बार मेरी तरफ़ देखा उसकी आँखों से अंगारे निकल रहे थे। जिनकी किरणों में हिंस्र प्रतिशोध की लाली झलक रही थी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ– सईद इसे यहाँ क्यों लाया? क्या मेरा घमण्ड तोड़ने के लिए?

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