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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘मैं वीरमदेव से एक बार साक्षात् करना चाहती हूँ। प्रातःकाल से पहले एक बार भेंट करने की इच्छा है।’

अलाउद्दीन ने सोचा, चिड़िया जाल में फँस चुकी है, जाती कहाँ है? वीरमदेव को चिढ़ाना चाहती है, इसमें हर्ज की बात नहीं। यह विचारकर उसने कहा–‘तुम्हारी बात मंजूर है, लेकिन अब निकाह जल्दी हो जाना चाहिए।’

सुलक्षणा ने उत्तर दिया–‘घबराइए नहीं, अब दो-चार दिन की बात है।’

बादशाह ने अँगूठी सुलक्षणा को दी कि दारोगा को दिखाकर वीरमदेव से मिल लेना और आप प्रसन्न होते हुए महल में रवाना हो गये।

सुलक्षणा ने नवीन वस्त्र पहने, माँग मोतियों से भरवायी, शरीर पर आभूषण अलंकृत किये और वह दर्पण के सामने जा खड़ी हुई। उसने अपना रूप सहस्त्रों बार देखा था, परन्तु आज वह अप्सरा प्रतीत हो रही थी। कमरे में बहुत-सी सुन्दर मूर्तियाँ थीं, एक-एक करके सबसे साथ उसने अपनी तुलना की, परन्तु हृदय में एक भी न जमी। अभिमान सौंदर्य का कटाक्ष है। सुलक्षणा अपने रूप के मद में मतवाली होकर झूमने लगी।

कहते हैं, सुन्दरता जादू है, और उससे पशु भी वश में हो जाते हैं। सुलक्षणा ने सोचा, क्या वीरमदेव हृदय से शून्य है। यदि नहीं, तो वह मुझे देखकर फड़क न उठेगा? अपनी की हुई उपेक्षाओं के लिए पश्चात्ताप न करेगा? प्रेम सब कुछ सह लेता है परन्तु उपेक्षा नहीं सह सकता। परन्तु थोड़े समय पश्चात् दूसरा विचार हुआ। यह क्या? अब प्रेम का समय बीत चुका, प्रतिकार का समय आया है। वीरमदेव का दोष साधारण नहीं है। उसे उसकी भूल सुझानी चाहिए। यह श्रृंगार किसके लिए है? मैं वीरमदेव के घावों पर नमक छिड़कने चली हूँ, उसे अपनी सुन्दरता दिखाने नहीं चली।

यह सोचकर उसने वस्त्र उतार लिये। और वीरमदेव को जलाने के लिये मुसलमानी वस्त्र पहनकर पालकी में बैठ गयी।

रात्रि का समय था, गगन-मंडल तारों से जगमगा रहा था। सुलक्षणा बुरका पहने हुए कैदखाने के दरवाजे पर गयी और बोली–‘दारोगा कहाँ है?’

सिपाहियों ने कहारों के साथ शाही कर्मचारी को देखकर आदर से उत्तर दिया–‘हम उन्हें अभी बुलाते हैं।’

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