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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


सुलक्षणा लड़खड़ाते हुए पैरों से आगे बढ़ी, परन्तु हृदय काँपने लगा। पैर आगे करती थी, परन्तु मन पीछे रहता था। वीरमदेव ने सिर उठाकर देखा, तो अचम्भे में आ गये। और आश्चर्य से बोले, ‘सुलक्षणा! यह क्या? क्या प्रेम का प्रतिकार धर्म, न्याय और जाति का रुधिर पान करके भी तृप्त नहीं हुआ, जो ऐसी अँधियारी रात्रि में यहाँ आयी हो?’

सुलक्षणा की आँखों से आसुओं का फव्वारा उछल पड़ा, परन्तु वह पी गयी। उसे आज ज्ञान हुआ कि मैं कितनी पतित हो गयी हूँ, तथापि सँभलकर बोली–‘नहीं अभी मन शांत नहीं हुआ।’

‘क्या माँगती हो? कहो, मैं देने को उद्यत हूँ;’

‘इसी से यहाँ आयी हूँ, मेरे घाव का मरहम तुम्हारे पास है।’

वीरमदेव ने समझा, मेरा सिर लेने आयी है। सुनकर बोले, ‘मरहम यहाँ कहाँ है, मैं तो स्वयं घाव बन रहा हूँ, परन्तु तुम जो कहोगी, उससे पीछे न रहूँगा।’

सुलक्षणा ने अपना मुख दोनों हाथों से ढाँप लिया, वह फूट-फूटकर रोना लगी। रोने के पश्चात हाथ जोड़कर बोली, ‘तुमने एक बार मेरा हृदय तोड़ा है, अब प्रतिज्ञा भंग न करना।’

वीरमदेव को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने मन में सोचा, हो-न-हो, यह अपने किये पर लज्जित हो रही है, और यह बचाव का उपाए ढूँढ़ती है। आश्चर्य नहीं, मुझसे क्षमा माँगती हो। गंभीरता से पूछा, ‘क्या कहती हो?’

सुलक्षणा ने विनती करके कहा, ‘मेरे वस्त्र पहनो और यहाँ से निकल जाओ।’

वीरमदेव ने घृणा से मुँह फेर लिया और कहा, ‘मैं राजपूत हूँ।’

सुलक्षणा ने रोकर उत्तर दिया, ‘तुम मेरे कारण इस विपत्ति में फँसे हो। जब तक मैं स्वयं तुमको यहाँ से निकाल न दूँ, तब तक मेरे मन को शान्ति न होगी। तुमने घाव पर मरहम रखने की प्रतिज्ञा की है। राजपूत प्रतिज्ञा भंग नहीं करते। देखो इंकार न करो, सिर न हिलाओ; मैंने पाप किया है, उसका प्रायश्चित करने दो।’

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