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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


शक्तिसिंह की आँखें ग्लानि से छलछला पड़ीं– ‘ये सब भी राजपूत थे। मेरी ही जाति के खून थे! हाय रे मैं! मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ–क्या सचमुच पूरा हुआ? नहीं, यह प्रतिशोध नहीं था, अधम शक्ति! तेरे चिरकाल के लिए पैशाचिक आयोजन था। तू भूला, पागल! तू प्रताप से बदला लेना चाहता था–उस प्रताप से जो अपनी स्वर्गादपिगरीयसी जननी जन्म-भूमि की मर्यादा बचाने चला था! वह जन्म-भूमि जिसके अन्न-जल से तेरी नस भी फूली-फली है। अब भी माँ किस मर्यादा का ध्यान कर।’

सहसा धाँय-धाँय गोलियों का शब्द हुआ। चौंककर शक्तिसिंह ने देखा–दोनों मुगल सरदार प्रताप का पीछा कर रहे थे। महाराणा का घोड़ा लस्त-पस्त होकर झूमता हुआ गिर रहा था। अब भी समय है। शक्तिसिंह के हृदय में भाई की ममता उमड़ पड़ी।

एक आवाज हुई–रुको!

दूसरे चरण शक्तिसिंह की बन्दूक छूटी, पलक मारते दोनों मुगल-सरदार जहाँ के तहाँ ढेर हो गये। महाराणा ने क्रोध से आँख चढ़ाकर देखा। वे आँखें पूछ रही थीं, क्या मेरे प्राण पाकर निहाल हो जाओगे? इतने राजपूतों के खून से तुम्हारी हिंसा-तृप्त नहीं हुई?

किन्तु यह क्या? शक्तिसिंह तो महाराणा के सामने नतमस्तक खड़ा था। वह बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहा था। शक्तिसिंह ने कहा–नाथ! सेवक अज्ञान में भूल गया था, आज्ञा हो तो इन चरणों पर अपना शीश चढ़ाकर पदप्रक्षालन लूँ, प्रायश्चित कर लूँ।’

राणा ने अपनी दोनों बाँहें फैला दीं। दोनों के गले आपस में मिल गये, दोनों की आँखें स्नेह की वर्षा करने लगीं। दोनों के हृदय गद्गद हो गये।

इस शुभ मुहूर्त पर पहाड़ी वृक्षों ने पुष्प की, नदी की कल-कल धाराओं ने वन्दना की। प्रताप ने उस डबडबायी हुई आँखों से ही देखा–उनका चिर सहचर प्यारा ‘चेतक’ दम तोड़ रहा है। सामने ही शक्तिसिंह का घोड़ा तैयार है।’

शक्तिसिंह ने कहा–भैया! अब आप विलम्ब न करें, घोड़ा तैयार है।’

राणा शक्तिसिंह के घोड़े पर सवार होकर उस दुर्लभ मार्ग को पार करते हुए निकल गये

श्रावण का महीना था।

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