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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘सब ठीक है, क्या मौलवी साहब मौके पर मौजूद हैं?’

‘कब से इंतजार कर रहे हैं, कुछ ज्यादा जाँफ़िसानी तो नहीं करनी पड़ी?’

‘जाँफ़िसानी? चेखुश, जान पर खेलकर लायी हूँ, करती भी क्या? गर्दन थोड़े ही उतरवानी थी।’

‘होश में तो है?’

‘अभी बेहोश है। किसी तरह राजी न होती थी। मजबूरन यह किया गया।’

‘तब चलें।’

बुढ़िया उठी। दोनों पालकी में जा बैठीं। पालकी संकेत पर चलकर मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई भीतर चली गयी।

मस्जिद में सन्नाटा और अंधकार था, मानो वहाँ कोई जीवित पुरुष नहीं है। पालकी के आरोहियों को इसकी परवाह न थी। वे पालकी को सीधे मस्जिद के भीतरी कक्ष में ले गये। यहाँ पालकी रखी। बुढ़िया ने बाहर आकर एक कोठरी में प्रवेश किया। वहाँ एक आदमी सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा था। बुढ़िया ने कहा–‘उठिए मौलवी साहब, मुरीदों का ताबीज इनायत कीजिए। क्या अभी बुखार नहीं उतरा?’

‘अभी तो चढ़ा ही है।’ कहकर मौलवी साहब उठ बैठे। बुढ़िया ने कुछ कान में कहा, मौलवी साहब सफेद दाढ़ी हिलाकर बोले–‘समझ, गया कुछ खटका नहीं है। हैदर खोजा मौके पर रोशनी लिये हाजिर पहुँचेगा। मगर तुम लोग बेहोशी की हालत में उसे किस तरह–’

‘आप बेफिक्र रहें! बस, सुरंग की चाभी इनायत करें।’

मौलवी साहब ने उठकर मस्जिद की बायीं ओर के चबूतरों के पीछे वाले भाग में जाकर एक कब्र का पत्थर किसी तरकीब से हटा दिया। वहाँ सीढ़ियाँ निकल आयीं। बुढ़िया उसी तंग तहखाने के रास्ते उसी काले वस्त्र से आच्छादित लम्बी स्त्री के सहारे एक बेहोश स्त्री को नीचे उतारने लगी। उनके चले जाने पर मौलवी साहब ने गौर से इधर-उधर देखा और फिर किसी गुप्त तरकीब से तहखाने का द्वार बन्द कर दिया। तहखाना फिर कब्र बन गया।

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