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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


लहनासिंह ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया’ औरों से सब हाल कह दिया। सब बदूंकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कसकर बाँधीं। घाव माँस में ही था पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया था।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तककर मार रहा था, वह खड़ा था; और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे आते थे। थोड़े से मिनटों में वे...।

अचानक आवाज़ आयी ‘वाह गुरु जी की फतह! वाह गुरु जी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया। एक किलकारी और ‘अकाल सिक्खों की फौज आयी! वाह गुरु जी का खालसा!! सत श्री अकाल पुरुष!!!’ और लड़ाई खतम हो गयी। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आर-पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसमें घाव को ख़ंदक़ गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी को साफा कसकर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना के दूसरे घाव भारी लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृति-कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी। जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य्य’ कहलाती। वज़ीरासिंह कह रहा था। कि कैसे मन-मन-भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरंत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

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