लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

29 पाठक हैं

‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है


रूपा, सोना— (एक साथ, हाँफती हुई) भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय है पीछे-पीछे भैया हैं।

होरी— (एकदम) गाय आ गयी?

रूपा— (आगे बढ़ कर) हाँ, पहले मैंने देखा था, तभी दौड़ी। सोना ने तो पीछे देखा।

सोना— तूने भैया को कहाँ पहचाना? तब तो कहती थी कि कोई गाय भागी आ रही है। मैंने कहा कि भैया हैं।

रूपा— ऊँ हूँ, पहले मैंने देखा था।

सोना— नहीं, पहले मैंने (रूपा चिढ़ा कर बाहर भागती है, सोना पीछे-पीछे जाती है)

होरी— (पुकारता हुआ) गोबर की माँ...गोबर की मां, गाय आ गयी।

[धनिया तेजी से, प्रसन्न होती हुई आती है]

धनिया— क्या गाय आ गयी?

होरी— (प्रसन्न) हाँ, गाय आ गयी। चलो, जल्दी से नांद गाड़ दें।

धनिया— नहीं पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोल कर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नांद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।

होरी— कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ लो। उसके गले में बाँधेंगे।

धनिया— (जाती-जाती रुक कर) सोना कहाँ गयी? सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो। गाय को नजर बहुत लगती है।

होरी— आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी।

धनिया— (आकाश की ओर देखकर) गाय के आने का आनन्द तो जब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान के मन की बात है।

[तभी नेपथ्य में शोर मचता है ‘गाय आ गयी’ ‘गाय आ गयी’]

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai