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नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है


दातादीन— होरी महतो, होरी महतो...अरे इनकी तो जबान बन्द हो गयी।

झिंगुरी— आँखों से कैसे आंसू बह रहे हैं?

मातादीन— दादा...दादा...काकी। आम का पना बनाया?

धनिया— (रोकर) वह रहा पना। पैसे होते हो डाक्टर को बुलाती।

मातादीन— लाओ मुझे दो। (पिलाता है) काकी, दादा तो...(नहीं पिला पाता)

झुनिया— (आकर) गेहूँ की भूसी यह रही अम्माँ। देह में मलो तो।

धनिया— ला...

[धनिया मलती है]

शोभा— (आकर) दादा...दादा...

पटेश्वरी— (देखकर) क्या रखा है धनिया, अब। महतो चले।

हीरा— (रोते-रोते) भाभी, दिल कड़ा करो, गोदान करा दो, दादा चले।

दातादीन— हाँ, गोदान करा दो। अन्त आ गया। महतो जा रहे हैं।

अनोखेलाल— यही समय है धनिया, गोदान करा दो। महतो अब नहीं बचेंगे !

[धनिया अब तक देह मल रही थी। तड़प कर उठती है। होरी को देखती है, फिर टेंट से बीस आने पैसे निकालती है। पति के ठंडे हाथ पर रखती है और दातादीन से कहती है]

धनिया— महाराज, घर में न गाय है न बछिया है न पैसा। आज जो सुतली बेची थी उसके यही बीस आने पैसे हैं, यही इनका गोदान है।

[कहती-कहती वह पछाड़ खाकर गिर पड़ती है। सब लोग सिर झुका लेते हैं और सुबक उठते हैं। यहीं परदा गिर जाता है]

समाप्त

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