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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


विद्या और ललित-कला की उन्नति की दृष्टि से रणजीतसिंह का शाशन-काल उल्लेखनीय नहीं। उनकी जिंदगी राज्य को सुदृढ़ बनाने की कोशिश में ही समाप्त हो गई। स्थापत्य कला की वह स्मरणीय कृतियाँ, जो अब तक मुगल राज्य की याद दिला रही हैं, उत्पन्न न हो सकीं; क्योंकि यह पौधे शान्ति के उद्यान में ही उगते और फलते-फूलते हैं।

रणजीतसिंह का वैयक्तिक जीवन सुन्दर और स्पृहणीय नहीं कहा जा सकता। उन दुर्बलताओं में उन्होंने बहुत बड़ा हिस्सा पाया था, जो उस जमाने में शरीफों और रईसों के लिए बड़प्पन की सामग्री समझी जाती थी और जिनसे यह वर्ग आज भी विमुक्त नहीं है। उनके ९ विवाहित रानियाँ थीं और ९ रखेलियाँ थीं। लौंडियों की संख्या तो सैकड़ों तक पहुँचती थी। विवाहिता रानियाँ प्रायः प्रभावशाली सिख-घरानों की बेटियाँ थीं, जिन्हें उनके बाप-भाइयों ने अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए रनिवास में पहुँचा दिया था। इसके कारण वहाँ अक्सर साज़िशें होती रहती थीं।

मद्यपान उस समय सिख रईसों का सामान्य व्यसन था और महाराज तो गज़ब के पीने वाले थे। उनकी शराब बहुत तेज़ होती थी। इस अति मद्यपान के कारण ही वे कई बार लकवे के शिकार हुए और अंतिम आक्रमण सांघातिक सिद्ध हुआ। यह हमला १८३॰ के जाड़े में हुआ और साल भर बाद जान लेकर ही गया। पर इस सांघातिक व्याधि से पीड़ित रहते हुए भी महाराज राज के आवश्यक कार्य करते रहे। उस सिंह का, जिसकी गर्जना से पंजाब और अफगानिस्तान काँप उठते थे, सुखपाल में सवार होकर फौज़ की क़वायद देखने के लिए जाना बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य था। हज़ारों आदमी उनके दर्शन के लिए सड़कों के दोनों ओर खड़े हो जाते और उन्हें इस दशा में देखकर करुणा और नैराश्य के आँसू बहाते थे। अंत को मौत का परवाना आ पहुँचा और महाराज ने राजकुमार खड्गसिंह को बुलाकर अपना उत्तराधिकारी तथा राजा ध्यानसिंह को प्रधान मंत्री नियुक्त किया। २५ लाख रुपया गरीब मोहताजों में बाँटा गया और संध्या समय जब रनिवास में दीपक जलाए जा रहे थे, महाराज के जीवन-दीप का निर्वाण हो गया।

ध्यानसिंह को प्रधान मंत्री बनाना महाराज की अंतिम  और महा अनर्थकारी भूल थी। शायद उस समय अन्य शारीरिक, मानसिक शक्तियों के सदृश्य उनकी विवेक शक्ति भी दुर्बल हो गई थी। महाराज की मृत्यु के बाद ६ साल तक उथल-पुथल और अराजकता का काल था। खड्गसिंह और उनका पुत्र नौनिहालसिंह दोनों कतल कर दिये गए, फिर शेरसिंह गद्दी पर बैठा। उसकी भी वही गति हुई। और सिख सिंहासन का अंतिम अधिकारी अंग्रेज सरकार का वृत्तिभोगी बन गया। इस प्रकार वह सुविशाल प्रासाद, जो रणजीतसिंह ने निर्माण किया था, दस ही वर्षो में धराशायी हो गया।

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