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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


उसकी दैव-दत्त प्रतिभा ने युद्धविद्या को जहाँ पाया, वहीं नहीं छोड़ा, किंतु उसकी प्रत्येक शाखा को और आगे बढ़ाया। आज के युग में तोपों के बनाने और उनसे काम लेने में जितनी प्रगति हुई है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं है; पर अकबर उस पुराने जमाने में ही उनकी आवश्यकता को जान गया था, और उसने एक ऐसी तोप ईजाद की थी, जो एक शिताबे में १७ फैर करती थी। कुछ ऐसी तोपें भी बनवाई थीं, जिनके टुकड़े-टुकड़े करके एक जगह से दूसरी जगह आसानी से ले जा सकते थे।

हिंदुस्तान में बहुत पुराने जमाने से सेना-नायकों और मनसबदारों की धाँधली के कारण सेना की विचित्र अवस्था हो रही थी। सिपाहियों और सवारी की तनख्वाहों के लिए सरदारों को बड़ी-बड़ी जागीरें दी गई थीं। पर सेना को देखो तो पता नहीं, और जो थी भी, उसकी कुछ अजीब हालत थी। किसी सैनिक के पास घोड़ा है, तो जीन नहीं, हथियार है, तो कपड़े नहीं। अकबर ने सबसे पहले अपनी सुधारक दृष्टि इसी ओर डाली और सिपाहियों को सरदारों के शोषण से निकालकर राज्य की छत्रच्छाया में लिया। उनकी नकद तनख्वाहें बाँध दीं और चेहरानवीसी तथा घोड़ों के दाग़ के द्वारा उनको बदनीयती के चंगुल से छुटकारा दिलाया, और इस प्रकार समय पर काम देनेवाली स्थायी सेना (स्टैंडिंग आर्मी) की नींव डाली। इस प्रकार अकबर ही पहला व्यक्ति है, जिसने प्राचीन समस्त पद्धति को तोड़कर राज्य की शक्ति तथा अधिकार की स्थापना की।

यद्यपि दुनिया में महान् विजेताओं की श्रेणी में अकबर को भी, अपनी चढ़ाइयों की सफलता और विजित भूखंड के विस्तार की दृष्टि से, विशिष्ट पद प्राप्त है; पर जिस बात ने वस्तुतः अकबर को अकबर बनाया, वह उसका जंगी कारनामा नहीं है, किन्तु वह अधिभूत की सीमा को पारकर अध्यात्म तक फैली हुई है। उसने जीवन के आरम्भ में ही विपद के विद्यालय में जो शिक्षा पाई थी, वह ऐसी उथली न थी कि अपने बाप की तबाही और खड़े-खड़े हिंदुस्तान से निकाले जाने और दर-दर ठोकरें खाते फिरने से प्रभावकारी उपदेश न ग्रहण करता। और यह बात सच हो या न हो कि उसके पिता को ईरान के बादशाह तहमास्प सफ़वी ने हिंदुस्तान लौटते समय दो उपदेश दिये थे–एक यह कि पठानों को व्यापार में लगाना, दूसरा यह कि भारत की देशी जातियों को अपना बनाना; पर समय ने स्वयं उसको बता दिया कि राज्य को टिकाऊ बनाने का कोई उपाय हो सकता है, तो वह यह है कि उसकी नींव तलवार पतली धार के बदले लोक-कल्याण के द्वारा प्रजा के हृदयों में स्थापित की जाय। अतः पहले ही साल उसने एक ऐसा आदेश निकाला, जो इंग्लैंड की आज की सारी उन्नति-समृद्धि का रहस्य है, पर जो सैकड़ों साल तक ठोकरें खाने के बाद उसको सूझ गया। अर्थात् व्यापार-वाणिज्य को उन सब करों से मुक्त कर दिया, जो उसकी उन्नति में बाधक हो रहे थे। और यद्यपि आरम्भ में उसकी अल्पवयस्कता और असहायता के कारण वह पूरी तरह कार्यान्वित न हो सका, पर जब शासन का सूत्र उसके हाथ में आया, तो वह उसको जारी करके रहा। यह तो वह बर्ताव है, जो भीतरी व्यापार के साथ किया गया। विदेशी व्यापार को भी कुछ भारी करों से बाधा पहुँच रही थी, जो मीर बहरी या समुद्री कर (सी कस्टम्स) कहलाते थे। अकबर ने इन करों को भी इतना घटा दिया कि वह नाम-मात्र के अर्थात् ढाई प्रतिशत रह गए और इससे देश के विदेशी व्यापार को जितना लाभ हुआ, उसे बताने की आवश्यकता नहीं। यद्यपि ‘फ्री ट्रेड’ अर्थात् ‘अबाध वाणिज्य’ ब्रिटिश सरकार का ओढ़ना-बिछौना है, पर इस जमाने में भी समुद्री करों की दर अकबर की बाँधी हुई दरों से कहीं अधिक है।

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