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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


अब राज्य-प्रबंध से आगे बढ़कर अकबर के निजी जीवन पर दृष्टि डाली जाए, तो वह बड़ा ही प्यार  करने योग्य व्यक्ति था। विनोदशीलता इतनी थी कि कैसा ही ‘शुष्कं काष्ठं’ व्यक्ति उसकी गोष्ठी में सम्मिलित हो, मजाल नहीं, हास्य-रस में शराबोर न हो जाए। सौजन्य और दया का तो पुतला था। जिस आदमी की उस तक पहुँच हो जाती, उम्र भर के लिए अर्थ-चिंता से मुक्त हो जाता। और जिस शत्रु ने उसके सामने सिर झुका दिया, उसके लिए उसकी क्षमा और अनुग्रह का स्रोत्र उमड़ उठा और उसको अपने खास दरबारियों में दाखिल किया। भोजन एक ही समय करता और विषय-वासना के भी वश में न था। यद्यपि पढ़ा-लिखा न था, पर अपना समय प्रायः शास्त्र-चर्चा तथा सब प्रकार के ग्रंथों को पढ़वाकर सुनने में लगाया करता था। वह विद्वानों का, चाहे वे किसी धर्म या जाति के हों, बड़ा आदर करता था। उसमें आदमियों की पहचान जबरदस्त थी और चुनाव की यह खूबी थी कि जो आदमी जिस कार्य के लिए विशेष योग्य होता था, वही उसके सुपुर्द किया जाता था।

यही कारण था कि उसकी योजनाएँ कभी विफल न होतीं थीं। इसी योग्यता की बदौलत वह अमूल्य रत्न उसकी दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे; जो विक्रमादित्य के नवरत्न को भी मात करते थे। शिकार का बेहद शौक़ था, और हाथियों का तो आशिक़ ही था। संगीत शास्त्र के तत्त्वों से भी अपरिचित न था। इमारतें बनवाने की ओर भी बहुत ध्यान था और बहुत से शानदार किले और भव्य प्रासाद आज तक उसकी सुरुचि और राजोचित उच्चाकांक्षा के साक्षी-स्वरूप विद्यमान हैं। ईश्वर ने उसे गुण-राशि के साथ-साथ रूप निधि भी प्रदान की थी। जहाँगीर ने ‘‘तुज्के जहाँगीर’’ में बेटे की मुहब्बत और चित्रकार की कलम से उसकी तस्वीर खींची है, जिसका उलथा पाठकों के मनोरंजन के लिए नीचे दिया जाता है–

‘‘बुलंदबाला, मझोला क़द, गेहुआँ रंग, आँखों की पुतलियाँ और भवें स्याह, रंगत गोरी थी, पर उसमें फीकापन था, नमकीनी अधिक थी। सिंह की ऐसी चौड़ी छाती और उभरी हुई, हाथ और बाँहें लम्बी, बायें नथने पर चने के बराबर एक मस्सा, जिसको सामुद्रिक के पंडित बहुत शुभ मानते थे। आवाज़ ऊँची और बोली में एक खास लोच तथा सहज माधुर्य था। सजधज में साधारण लोगों की उनसे कोई समानता न थी, उनके चेहरे पर सहज तेज विद्यमान था।’’

आखिरी उम्र में कपूत बेटों ने इस देशभक्त बादशाह को बहुत-से दग़ा दिये और इसी दुःख में वह २॰ जमादी-उल आख़िर (...सितम्बर सन् १६॰५ ई०) को इस नाशवान् जगत् को छोड़कर परलोक सिधारा और सिकंदरे के शानदार मकबरे में अपने उज्जवल कीर्ति-कलाप का अमर स्मारक छोड़ कर दफन हुआ।

अकबर में यद्यपि चंद्रगुप्त की वीरता और महत्वाकांक्षा, अशोक की साधुता और नियम-निष्ठा और विक्रमादित्य की महत्ता तथा गुणज्ञता एकत्र हो गई थी, फिर भी जिस महत्कार्य की नींव उसने डाली थी, वह किसी एक आदमी के बस का न था, और चूँकि उसके उत्तराधिकारियों में कोई उसके जैसे विचार रखने वाला पैदा न हुआ, इसलिए वह पूरी तरह सफल न हो सका। फिर भी उसके सच्ची लगन से प्रेरित प्रयास निष्फल नहीं हुए और यह उन्हीं का सुफल था कि सामयिक अधिकारियों की इस ओर उपेक्षा होते हुए भी हिन्दू-मुसलमान कई शताब्दियों तक बहुत ही मेल-मिलाप के साथ रहे।

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