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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


स्वामी विवेकानंद ने गुरुदेव के प्रथम दर्शन का वर्णन इस प्रकार किया है–देखने में वह बिलकुल साधारण आदमी मालूम होते थे। उनके रूप में कोई विशेषता न थी। बोली बहुत सरल और सीधी थी। मैंने मन में सोचा कि क्या यह संभव है कि यह सिद्ध पुरुष हों। मैं धीरे-धीरे उनके पास पहुँच गया और उनसे वह प्रश्न पूछे, जो मैं अक्सर औरों से पूछा करता था।– ‘‘महाराज, क्या आप ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं?’’ उन्होंने जवाब दिया–‘हाँ।’’ मैंने फिर पूछा–‘‘क्या आप उसका अस्तित्व सिद्ध भी कर सकते हैं?’’ जवाब मिला–‘‘हाँ!’’ मैंने पूछा–‘‘क्योंकर?’’ जवाब मिला–‘‘मैं उसे ठीक वैसे ही देखता हूँ, जैसे तुमको।’’

परमहंसजी की वाणी में कोई वैद्युतिक शक्ति थी, जो संशयात्मा को तत्क्षण ठीक रास्ते पर लगा देती थी और यही प्रभाव स्वामी विवेकानन्द की वाणी और दृष्टि में भी था। हम कह चुके हैं कि परमहंसजी के परमधाम सिधारने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने संन्यास ले लिया। उनकी माता उच्चाकांक्षिणी स्त्री थीं। उनकी इच्छा थी कि मेरा लड़का वकील हो, अच्छे घर में उसका ब्याह हो, और दुनिया के सुख भोगे। उनके संन्यास-धारण के निश्चय का समाचार पाया, तो परमहंस की सेवा में उपस्थित हुईं और अनुनय-विनय की कि मेरे बेटे को जोग न दीजिए; पर जिस हृदय ने शाश्वत प्रेम और आत्मानुभूति के आनंद का स्वाद पा लिया हो, उसे लौकिक सुख-भोग कब अपनी ओर खींच सकते हैं! परमहंसजी कहा करते थे कि जो आदमी दूसरों को आध्यात्मिक उपदेश देने की आकांक्षा करे, उसे पहले स्वयं उस रंग में डूब जाना चाहिए। इस आदेश के अनुसार स्वामीजी हिमालय पर चले गए और वह पूरे नौ साल तक तपस्या और चित्त-शुद्धि की साधना में लगे रहे। बिना खाये, बिना सोये, एकदम नग्न और एकदम अकेले सिद्ध-महात्माओं की खोज में ढूँढ़ते और उनके सत्संग से लाभ उठाते रहते थे। कहते हैं कि परमतत्त्व की जिज्ञासा उन्हें तिब्बत खींच ले गई, जहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और साधना प्रणाली का समीक्षक बुद्धि से अध्ययन किया। स्वामीजी खुद फरमाते हैं कि मुझे दो-दो तीन-तीन दिन तक खाना न मिलता था। अक्सर ऐसे स्थान पर नंगे बदन सोया हूँ, जहाँ की सर्दी का अंदाजा थर्मामीटर से नहीं लग सकता। कितनी ही बार शेर, बाघ और दूसरे शिकारी जानवरों का सामना हुआ। पर राम के प्यारे को इन बातों का क्या डर!

स्वामी विवेकानन्द हिमालय में थे, जब उन्हें प्रेरणा हुई कि अब तुम्हें अपने गुरुदेव के आदेश का पालन करना चाहिए। अतः वह पहाड़ से उतरे और बंगाल, संयुक्तप्रांत, राजपूताना, बम्बई आदि में रेल से और अक्सर पैदल भी भ्रमण करते; किंतु जो जिज्ञासा जन श्रद्धावश उनकी सेवा में उपस्थित होते थे, उन्हें धर्म और नीति तत्त्वों का उपदेश करते थे। जिसे विपद्ग्रस्त देखते, उसको सांत्वना देते। मद्रास उस समय नास्तिकों और जड़वादियों का केंद्र बन रहा था। अँगरेजी विश्वविद्यालयों से निकले हुए नवयुवक, जो अपने धर्म और समाज-व्यवस्था के ज्ञान से बिल्कुल कोरे थे, खुलेआम ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकार किया करते थे। स्वामीजी यहाँ अरसे तक टिके रहे और कितने ही होनहार नौजवानों को धर्म-परिवर्तन से रोका तथा जड़वाद के जाल से बचाया। कितनी ही बार लोगों ने उनसे वाद-विवाद किया, उनकी खिल्ली उड़ायी; पर वह अपने वेदांत के रंग में इतना डूबे हुए थे कि उन्हें किसी की हँसी मजाक की तनिक भी परवाह न थी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति नवयुवक-मंडली से बाहर निकल कर कस्तूरी की गंध की तरह चारों ओर फैलने लगी। बड़े-बड़े धनी-मानी लोग भक्त और शिष्य बन गए और उनसे नीति तथा वेदांत-तत्त्व के उपदेश लिये। जस्टिम सुब्रह्मण्यन् ऐयर महाराजा रामनद (मद्रास) और महाराजा खेतड़ी (राजपूताना) उनके प्रमुख शिष्यों में थे।

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