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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


आपने पाश्चात्यों को पहली बार सुनाया कि विज्ञान के वह सिद्धांत, जिनका उनको गर्व है और जिनका धर्म से संबंध नहीं, हिंदुओं को अपनी प्राचीन काल से विदित थे और हिंदू धर्म की नींव उन्हीं पर खड़ी है, और जहाँ अन्य धर्मों का आधार कोई विशेष व्यक्ति या उसके उपदेश हैं, हिन्दू धर्म का आधार शाश्वत सनातन सिद्धांत हैं, और यह इस बात का प्रमाण है कि वह कभी न कभी विश्व-धर्म बनेगा। कर्म को केवल कर्त्तव्य समझकर करना, उसमें फल या सुख-दुख की भावना न रखना ऐसी बात थी, जिससे पश्चिमवाले अब तक सर्वथा अपरिचित थे। स्वामीजी के ओजस्वी भाषणों और सच्चाई भरे उपदेशों से लोग इतने प्रभावित हुए कि अमरीका के अखबार बड़ी श्रद्धा और सम्मान के शब्दों में स्वामीजी की बड़ाई छापने लगे। उनकी वाणी में वह दिव्य प्रभाव था कि सुनने वाले आत्मविस्तृत हो जाते।

भक्तों की संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। चारों ओर से जिज्ञासु जन उनके पास पहुँचते और अपने-अपने नगर में पधारने का अनुरोध करते। स्वामीजी को अकसर दिन-दिन भर दौड़ना पड़ता। बड़े-बड़े और प्रोफेसरों और विद्वानों ने आकर उनके चरण छुए और उनके उपदेशों को हृदय में ध्यान दिया।

स्वामीजी अमरीका में करीब तीन साल रहे और इस बीच श्रम और शरीर-कष्ट की तनिक भी परवाह न कर अपने गुरुदेव के आदेश के अनुसार वेदांत का प्रचार करते रहे। इसके बाद आपने इंग्लैण्ड की यात्रा की। आपकी ख्याति वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थी। अंग्रेजों को, जो नास्तिकता और जड़ पूजा में दुनिया में सबसे आगे बढ़े हुए हैं, आकृष्ट करने में पहले आपको बहुत कष्ट करना पड़ा; पर आपका अद्भुत अध्यवसाय और प्रबल संकल्प शक्ति अंत में इन सब बाधाओं पर विजयी हुई और आपकी वक्तृताओं का जादू अंग्रेजों पर भी चला गया। ऐसे-ऐसे वैज्ञानिक, जिन्हें खाने के लिए भी प्रयोगशाला के बाहर निकलना कठिन था, आपका भाषण सुनने के लिए घंटों पहले सभा में पहुँच जाते और प्रतीक्षा में बैठे रहते। आपने वहाँ तीन बड़े मारके के भाषण किए और आपकी वाग्मिता तथा विद्वत्ता का सिक्का सबके दिलों पर बैठ गया। सब पर प्रकट हो गया कि जड़वाद में यूरोप चाहे भारत से कितना ही आगे क्यों न हो, पर अध्यात्म और ब्रह्मज्ञान का मैदान हिंदूस्तानियों का ही है! आप करीब एक साल तक वहाँ रहे और अनेकानेक सभा-समितियों, कालिजों और क्लब-घरों से आपके पास निमंत्रण आते थे, पर वेदांत के प्रचार का कोई भी अवसर आप हाथ से न जाने देते। आपकी ओजमयी वक्तृताओं का यह प्रभाव हुआ कि बिशपों और पादरियों ने गिरजों में वेदांत पर भाषण किए।

एक दिन एक संभ्रांत महिला के मकान पर लंदन के अध्यापकों की सभा होनेवाली थी। श्रीमतीजी शिक्षा-विषय पर बड़ा अधिकार रखती थीं। उनका भाषण सुनने तथा उस पर बहस की इच्छा से बहुत से विद्वान एकत्र हुए थे। संयोगवश श्रीमतीजी की तबीयत कुछ खराब हो गई। स्वामीजी वहाँ विद्यमान थे। लोगों ने प्रार्थना की कि आप ही कुछ फ़रमाएँ। स्वामीजी उठ खड़े हुए और भारत की शिक्षा-प्रणाली पर पांडित्यपूर्ण भाषण किया। उन विद्या-व्यवसायियों को कितना आश्चर्य हुआ, जब स्वामीजी के श्रीमुख से सुना कि भारत में विद्यादान सब दानों से श्रेष्ठ माना गया है और भारतीय गुरु अपने विद्यार्थियों से कुछ लेता नहीं, बल्कि उन्हें अपने घर पर रखता है और उनको विद्यादान के साथ-साथ भोजन-वस्त्र भी देता है।

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