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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


कलकत्ता में स्वामीजी ने एक अति पांडित्यपूर्ण भाषण किया। पर अध्यापन और उपदेश में अत्यधिक श्रम करने के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ गया और जलवायु-परिवर्तन के लिए आपको दार्जिलिंग जाना पड़ा। वहाँ से अल्मोड़ा गये। पर स्वामीजी ने तो वेदांत के प्रचार का व्रत ले रखा था, उनको बेकारी में कब चैन आ सकता था? ज्यों ही तबियत ज़रा सँभली, स्यालकोट पधारे और वहाँ से लाहौर वालों की भक्ति ने अपने यहाँ खींच बुलाया। इन दोनों स्थानों में आपका बड़े उत्साह से स्वागत-सत्कार हुआ और आपने अपनी अमृतवाणी से श्रोताओं के अंतःकरणों में ज्ञान की ज्योति जगा दी। लाहौर से आप काश्मीर गये और वहाँ से राजपूताने का भ्रमण करते हुए कलकत्ते लौट आये। इस बीच आपने दो मठ स्थापित कर दिये थे। इसके कुछ दिन बाद रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य लोकसेवा है और जिसकी शाखाएँ भारत के हर भाग में विद्यमान हैं तथा जनता का अमित उपकार कर रही हैं।

१८९७ ई० का साल सारे हिंदुस्तान के लिए बड़ा मनहूस था। कितने ही स्थानों में प्लेग का प्रकोप था और अकाल भी पड़ रहा था। लोग भूखे और रोग से काल का ग्रास बनने लगे। देशवासियों को इस विपत्ति में देखकर स्वामीजी कैसे चुप बैठ सकते थे? आपने लाहौरवाले भाषण में कहा था–

‘साधारण मनुष्य का धर्म यही है कि साधु-सन्यासियों और दीन-दुखियों को भरपेट भोजन कराए। मनुष्य का हृदय ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है, और इसी में उसकी आराधना करनी होगी।’

फलतः आपने बड़ी सरगर्मी से खैरातखाने खोलना आरंभ किया। स्वामी रामकृष्ण ने देश-सेवाव्रती सन्यासियों की एक छोटी-सी मंडली बना दी। यह सब स्वामीजी के निरीक्षण में तन-मन से दीन-दुखियों की सेवा में लग गए। मुर्शिदाबाद, ढाका, कलकत्ता, मद्रास आदि में सेवाश्रम खोले गए। वेदांत के प्रचार के लिए जगह-जगह विद्यालय भी स्थापित किए गए। कई अनाथालय भी खुले। और यह सब स्वामीजी के सदुद्योग का सुफल था। उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ रहा था, फिर भी वह स्वयं घर-घर घूमते और पीड़ितों को आश्वासन तथा आवश्यक सहायता देते-दिलाते। पीड़ितों की सहायता करना, जिनसे डाक्टर लोग भी भागते थे, कुछ इन्हीं देशभक्तों का काम था।

उधर इंग्लैण्ड और अमरीका में भी वह पौधा बढ़ रहा था, जिसका बीज स्वामीजी ने बोया था। दो संन्यासी अमरीका में और एक इंग्लैण्ड में वेदांत-प्रचार में लगे हुए थे, और प्रेमियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती थी।

स्वामीजी का स्वास्थ्य जब बहुत अधिक बिगड़ गया, तो आपने लाचार हो, इंगलैंड की दूसरी यात्रा की और वहाँ कुछ दिन ठहरकर अमरीका चले गए। वहाँ आपका बड़े उत्साह से स्वागत हुआ। दो बरस पहले जिन लोगों ने आपके श्रीमुख से वेदांत दर्शन पर जोरदार वक्तृताएँ सुनी थीं, वह सब पक्के वेदांती हो गए थे। स्वामीजी के दर्शन से उनके हर्ष की सीमा न रही। वहाँ का जलवायु स्वामीजी के लिए लाभजनक सिद्ध हुई और कठिन श्रम करने पर भी कुछ दिन में आप फिर स्वस्थ हो गए।
 

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